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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
मनुष्यों को किस प्रकार बल बढ़ाना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जैसे हेमन्त ऋतु में (अयम्) यह प्रसिद्ध (अग्निः) अग्नि (दिवः) प्रकाश और (पृथिव्याः) भूमि के बीच (मूर्द्धा) शिर के तुल्य सूर्य्यरूप से वर्त्तमान (ककुत्पतिः) दिशाओं का रक्षक हो के (अपाम्) प्राणों के (रेतांसि) पराक्रमों को (जिन्वति) पूर्णता से तृप्त करता है, वैसे ही मनुष्यों को बलवान् होना चाहिये ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि युक्ति से जाठराग्नि को बढ़ा संयम से आहार-विहार करके नित्य बल बढ़ाते रहें ॥२० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
कथं जनैर्बलं वर्धनीयमित्याह ॥
अन्वय:
(अग्निः) प्रसिद्धः पावकः (मूर्द्धा) शिर इव सूर्यरूपेण वर्त्तमानः (दिवः) प्रकाशस्य (ककुत्पतिः) दिशां पालकः (पृथिव्याः) भूमेश्च (अयम्) (अपाम्) प्राणानाम् (रेतांसि) वीर्य्याणि (जिन्वति) प्रीणाति ॥२० ॥
पदार्थान्वयभाषाः - यथा हेमन्तर्त्तावयमग्निर्दिवः पृथिव्याश्च मध्ये मूर्द्धा ककुत्पतिः सन्नपां रेतांसि जिन्वति, तथैव मनुष्यैर्बलिष्ठैर्भवितव्यम् ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्युक्त्या जाठराग्निं वर्धयित्वा संयमेनाहारविहारौ कृत्वा सदा बलं वर्धनीयम् ॥२० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी युक्तीने जठराग्री प्रदीप्त करून संयमाने आहार-विहार करावा व सदैव बल वाढवावे.