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राज्ञ्य॑सि॒ प्राची॒ दिग्वस॑वस्ते दे॒वाऽअधि॑पतयो॒ऽग्निर्हे॑ती॒नां प्र॑तिध॒र्त्ता त्रि॒वृत् त्वा॒ स्तोमः॑ पृथि॒व्याश्र॑य॒त्वाज्य॑मु॒क्थमव्य॑थायै स्तभ्नातु रथन्त॒रꣳसाम॒ प्रति॑ष्ठित्याऽअ॒न्तरि॑क्ष॒ऽऋष॑यस्त्वा प्रथम॒जा दे॒वेषु॑ दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थन्तु विध॒र्त्ता चा॒यमधि॑पतिश्च॒ ते त्वा॒ सर्वे॑ संविदा॒ना नाक॑स्य पृ॒ष्ठे स्व॒र्गे लो॒के यज॑मानं च सादयन्तु ॥१० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

राज्ञी॑। अ॒सि॒। प्राची॑। दिक्। वस॑वः। ते॒। दे॒वाः। अधि॑पत॒य इत्यधि॑ऽपतयः। अ॒ग्निः। हे॒ती॒नाम्। प्र॒ति॒ध॒र्त्तेति॑ प्रतिऽध॒र्त्ता। त्रि॒वृदिति॑ त्रि॒ऽवृत्। त्वा॒। स्तोमः॑। पृ॒थि॒व्याम्। श्र॒य॒तु॒। आज्य॑म्। उ॒क्थम्। अव्य॑थायै। स्त॒भ्ना॒तु॒। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। साम॑। प्रति॑ष्ठित्यै। प्रति॑स्थित्या॒ इति॒ प्रति॑ऽस्थित्यै। अ॒न्तरि॑क्षे। ऋष॑यः। त्वा॒। प्र॒थ॒म॒जा इति॑ प्रथम॒ऽजाः। दे॒वेषु॑। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒न्तु॒। वि॒ध॒र्त्तेति॑ विऽध॒र्त्ता। च॒। अ॒यम्। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। ते। त्वा॒। सर्वे॑। सं॒वि॒दा॒ना इति॑ सम्ऽवि॒दा॒नाः। नाक॑स्य। पृ॒ष्ठे। स्व॒र्ग इति॑ स्वः॒ऽगे। लो॒के। यज॑मानम्। च॒। सा॒द॒य॒न्तु॒ ॥१० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:10


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अग्नि आदि पदार्थ कैसे गुणोंवाले हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! (ते) तेरा (अधिपतिः) स्वामी जैसे जिस के (वसवः) अग्न्यादिक (देवाः) प्रकाशमान (अधिपतयः) अधिष्ठाता हैं, वैसे तू (प्राची) पूर्व (दिक्) दिशा के समान (राज्ञी) राणी (असि) है। जैसे (हेतीनाम्) वज्रादि शस्त्रास्त्रों का (प्रतिधर्त्ता) प्रत्यक्ष धारणकर्त्ता (त्रिवृत्) विद्युत् भूमिस्थ और सूर्यरूप से तीन प्रकार वर्त्तमान (स्तोमः) स्तुतियुक्त गुणों से सहित (अग्निः) महाविद्युत् धारण करनेवाली है, वैसे (त्वा) तुझ को तेरा पति मैं धारण करता हूँ। तू (पृथिव्याम्) भूमि पर (अव्यथायै) पीड़ा न होने के लिये (उक्थम्) प्रशंसनीय (आज्यम्) घृत आदि पदार्थों को (श्रयतु) धारण कर (प्रतिष्ठित्यै) प्रतिष्ठा के लिये (रथन्तरम्) रथादि से तारनेवाले (साम) सिद्धान्त कर्म को (स्तभ्नातु) धारण कर। जैसे (अन्तरिक्षे) आकाश में (दिवः) बिजुली का (मात्रया) लेश सम्बन्ध और (वरिम्णा) महापुरुषार्थ से (देवेषु) विद्वानों में (प्रथमजाः) पूर्व हुए (ऋषयः) वेदार्थवित् विद्वान् (त्वा) तुझ को (प्रथन्तु) शुभ गुणों से विशालबुद्धि करें (च) और जैसे (अयम्) यह (विधर्त्ता) विविध रीति से धारणकर्त्ता (ते) तेरा पति तुझ से वर्त्ते, वैसे उस के साथ तू वर्त्ता कर। (च) और जैसे (सर्वे) सब (संविदानाः) अच्छे विद्वान् लोग (नाकस्य) अविद्यमान दुःख के (पृष्ठे) मध्य में (स्वर्गे) जो स्वर्ग अर्थात् अति सुख की प्राप्ति (लोके) दर्शनीय है, उस में (त्वा) तुझ को (च) और (यजमानम्) तेरे पति को (सादयन्तु) स्थापन करें वैसे तुम दोनों स्त्री पुरुष वर्त्ता करो ॥१० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। पूर्व दिशा इसलिए उत्तम कहाती है कि जिस से सूर्य प्रथम वहाँ उदय को प्राप्त होता है। जो पूर्व दिशा से वायु चलता है, वह किसी देश में मेघ को उत्पन्न करता है, किसी में नहीं और यह अग्नि सब पदार्थों को धारण करता तथा वायु के संयोग से बढ़ता है, जो पुरुष इन वायु और अग्नि को यथार्थ जानते हैं, वे संसार में प्राणियों को सुख पहुँचाते हैं ॥१० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अग्न्यादिपदार्थाः कीदृशा इत्याह ॥

अन्वय:

(राज्ञी) राजमाना प्रधाना (असि) (प्राची) पूर्वा (दिक्) दिगिव (वसवः) अग्न्याद्याः (ते) तव (देवाः) देदीप्यमानाः (अधिपतयः) अधिष्ठातारः (अग्निः) विद्युदिव (हेतीनाम्) वज्रास्त्रादीनाम्। हेतिरिति वज्रना० ॥ (निघ०२.२०) (प्रतिधर्त्ता) प्रत्यक्षं धारकः (त्रिवृत्) यस्त्रिधा वर्त्तते (त्वा) (स्तोमः) स्तोतुमर्हः (पृथिव्याम्) भूमौ (श्रयतु) सेवताम् (आज्यम्) घृतम् (उक्थम्) वक्तुमर्हम् (अव्यथायै) अविद्यमानशरीरपीडायै (स्तभ्नातु) धरतु (रथन्तरम्) रथैस्तारकम् (साम) एतदुक्तं कर्म (प्रतिष्ठित्यै) प्रतितिष्ठन्ति यस्यां तस्यै (अन्तरिक्षे) आकाशे (ऋषयः) प्रापकाः (त्वा) (प्रथमजाः) प्रथमतो जाता वायवः (देवेषु) कमनीयेषु पदार्थेषु (दिवः) विद्युतः (मात्रया) लेशविषयेण (वरिम्णा) (प्रथन्तु) उपदिशन्तु। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् (विधर्त्ता) विविधानां धारकः (च) (अयम्) (अधिपतिः) उपरिष्टात् पालकः (च) (ते) (त्वा) (सर्वे) (संविदानाः) समाननिश्चयाः (नाकस्य) सुखप्रापकस्य भूगोलस्य (पृष्ठे) उपरि (स्वर्गे) सुखप्रापके (लोके) द्रष्टव्ये (यजमानम्) दातारम् (च) (सादयन्तु) अवस्थापयन्तु ॥१० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! तेऽधिपतिर्यथा यस्या वसवो देवा अधिपतय आसन् तथा प्राची दिगिव राज्ञ्यसि। यथा हेतीनां प्रतिधर्त्ता त्रिवृत्स्तोमोऽग्निरस्ति, तथा त्वाऽहं धरामि। भवति पृथिव्यामव्यथाया उक्थमाज्यं श्रयतु प्रतिष्ठित्यै रथन्तरं साम स्तभ्नातु। यथाऽन्तरिक्षे दिवो मात्रया वरिम्णा देवेषु प्रथमजा ऋषयस्त्वा प्रथन्तु, यथा चायं विधर्त्ता ते पतिर्वर्तेत तथा तेन सह त्वं वर्त्तस्व। यथा च सर्वे संविदाना विद्वांसो नाकस्य पृष्ठे स्वर्गे लोके त्वा यजमानं च सादयन्तु तथा युवां सीदेतम् ॥१० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। पूर्वा दिक् तस्मादुत्तमास्ति यस्मात् प्रथमं सूर्य्य उदेति। ये पूर्वस्या दिशो वायव आगच्छन्ति, ते कस्मिंश्चिद्देशे मेघकरा भवन्ति कस्मिंश्चिन्नैव। अयमग्निरेव सर्वेषां धर्त्ता वायुनिमित्तो वर्धते ये तं जानन्ति ते जगति सुखं संस्थापयन्ति ॥१० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पूर्व दिशेला सूर्य प्रथम उगवतो यासाठी ती उत्तम मानली जाते. पूर्व दिशेकडून वाहणारा वारा एखाद्या देशात मेघ उत्पन्न करतो, तर एखाद्या देशात मेघ उत्पन्न करत नाही. अग्नी हा सर्व पदार्थांना धारण करतो व वायूच्या संयोगाने वाढतो. जी माणसे या वायू व अग्नीला यथार्थपणे जाणतात ती जगातील प्राण्यांना सुखी करतात.