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नभ॑श्च नभ॒स्य᳖श्च॒ वार्षि॑कावृ॒तूऽ अ॒ग्नेर॑न्तःश्लेषो᳖ऽसि॒ कल्पे॑तां॒ द्यावा॑पृथि॒वी कल्प॑न्ता॒माप॒ऽ ओष॑धयः॒ कल्प॑न्ताम॒ग्नयः॒ पृथ॒ङ् मम॒ ज्यैष्ठ्या॑य॒ सव्रताः। येऽअ॒ग्नयः॒ सम॑नसोऽन्त॒रा द्यावा॑पृथि॒वीऽ इ॒मे। वार्षि॑कावृ॒तूऽ अ॑भि॒कल्प॑माना॒ऽ इन्द्र॑मिव दे॒वाऽ अ॑भि॒संवि॑शन्तु॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वे सी॑दतम् ॥१५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नभः॑। च॒। न॒भ॒स्यः᳖। च॒। वार्षि॑कौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒ग्नेः। अ॒न्तः॒श्ले॒ष इत्य॑न्तःऽश्ले॒षः। अ॒सि॒। कल्पे॑ताम्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। कल्प॑न्ताम्। आपः॑। ओष॑धयः। कल्प॑न्ताम्। अ॒ग्नयः॑। पृथ॑क्। मम॑। ज्यैष्ठ्या॑य। सव्र॑ता॒ इति॒ सऽव्र॑ताः। ये। अ॒ग्नयः॑। सम॑नस॒ इति॒ सऽम॑नसः। अ॒न्त॒रा। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। इ॒मेऽइ॒ती॒मे। वार्षि॑कौ। ऋ॒तूऽइत्यृ॒तू। अ॒भि॒कल्प॑माना॒ इत्य॑भिऽकल्प॑मानाः। इन्द्र॑मि॒वेतीन्द्र॑म्ऽइव। दे॒वाः। अ॒भि॒संवि॑श॒न्त्वित्य॑भि॒ऽसंवि॑शन्तु। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वेऽइति॑ ध्रु॒वे। सी॒द॒त॒म् ॥१५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:15


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब वर्षा ऋतु का व्याख्यान अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्री-पुरुषो ! तुम दोनों जो (नभः) प्रबन्धित मेघोंवाला श्रावण (च) और (नभस्यः) वर्षा का मध्यभागी भाद्रपद (च) ये दोनों (वार्षिकौ) वर्षा (ऋतू) ऋतु के महीने (मम) मेरे (ज्यैष्ठ्याय) प्रशंसित होने के लिये हैं, जिनमें (अग्नेः) उष्ण तथा (अन्तःश्लेषः) जिन के मध्य में शीत का स्पर्श (असि) होता है, जिन के साथ (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि समर्थ होते हैं, उन के भोग में तुम दोनों (कल्पेताम्) समर्थ हो, जैसे ऋतु योग से (आपः) जल और (ओषधयः) ओषधि वा (अग्नयः) अग्नि (पृथक्) जल से अलग समर्थ होते हैं, वैसे (सव्रताः) एक प्रकार के श्रेष्ठ नियम (समनसः) एक प्रकार का ज्ञान देने हारे (अग्नयः) तेजस्वी लोग (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें, (ये) जो (इमे) (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि वर्षा ऋतु के गुणों में समर्थ होते हैं, उन को (वार्षिकौ) (ऋतू) वर्षाऋतुरूप (अभिकल्पमानाः) सब ओर से सुख के लिये समर्थ करते हुए (देवाः) विद्वान् लोग (इन्द्रमिव) बिजुली के समान प्रकाश और बल को (तया) उस (देवतया) दिव्य वर्षा ऋतु के साथ (अभिसंविशन्तु) सन्मुख होकर अच्छे प्रकार स्थित होवें (अन्तरा) उन दोनों महीनों में प्रवेश करके (अङ्गिरस्वत्) प्राण के समान परस्पर प्रेमयुक्त (ध्रुवे) निश्चल (सीदतम्) रहो ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः - इन मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोमालङ्कार हैं। सब मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के समान वर्षा ऋतु में वह सामग्री ग्रहण करें, जिस से सब सुख होवें ॥१५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ वर्षर्त्तुर्व्याख्यायते ॥

अन्वय:

(नभः) नह्यन्ति घना यस्मिन् स श्रावणो मासः (च) (नभस्यः) नभस्सु भवो भाद्रपदः (च) (वार्षिकौ) वर्षासु भवौ (ऋतू) वर्षर्त्तुसम्बन्धिनौ (अग्नेः) ऊष्मणः (अन्तःश्लेषः) मध्ये स्पर्शो यस्य (असि) अस्ति (कल्पेताम्) (द्यावापृथिवी) (कल्पन्ताम्) (आपः) (ओषधयः) (कल्पन्ताम्) (अग्नयः) (पृथक्) (मम) (ज्यैष्ठ्याय) प्रशस्यभावाय (सव्रताः) समानानि व्रतानि नियमा येषान्ते (ये) (अग्नयः) (समनसः) समानं मनो ज्ञानं येभ्यस्ते (अन्तरा) मध्ये (द्यावापृथिवी) (इमे) (वार्षिकौ) वर्षासु भवौ (ऋतू) वृष्टिप्रापकौ (अभिकल्पमानाः) अभितः सुखाय समर्थयन्तः (इन्द्रमिव) यथा विद्युतम् (देवाः) विद्वांसः (अभिसंविशन्तु) आभिमुख्येन सम्यक् प्रविशन्तु (तया) (देवतया) (अङ्गिरस्वत्) (ध्रुवे) (सीदतम्)। [अयं मन्त्रः शत०८.३.२.५ व्याख्यातः] ॥१५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रीपुरुषौ ! युवां यौ नभश्च नभस्यश्च वार्षिकावृतू मम ज्यैष्ठ्याय कल्पेतां, ययोरग्नेरन्तःश्लेषोऽ(स्य)स्ति याभ्यां सह द्यावापृथिवी कल्पेतां, ताभ्यां युवां कल्पेतां, यथाप ओषधयश्च कल्पन्तामग्नयः पृथक् कल्पन्ते, तथा सव्रताः समनसोऽग्नयः कल्पन्ताम्। य इमे द्यावापृथिवी कल्पेते, तौ वार्षिकावृतू अभिकल्पमाना देवा इन्द्रमिव तया देवतया सहाऽभिसंविशन्तु, तयोरन्तराङ्गिरस्वद् ध्रुवे सीदतम् ॥१५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्विद्वद्वद्वर्षासु सामग्री संग्राह्या यतो वर्षर्तौ सर्वाणि सुखानि भवेयुः ॥१५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. सर्व माणसांनी विद्वानाप्रमाणे वर्षा ऋतूमध्ये सुखासाठी सर्व प्रकारची साधने उपलब्ध करून घ्यावीत.