वांछित मन्त्र चुनें

राज्ञ्य॑सि॒ प्राची॒ दिग्वि॒राड॑सि॒ दक्षि॑णा॒ दिक् स॒म्राड॑सि प्र॒तीची॒ दिक् स्व॒राड॒स्युदी॑ची॒ दिगधि॑पत्न्यसि बृह॒ती दिक् ॥१३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

राज्ञी॑। अ॒सि॒। प्राची॑। दिक्। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। अ॒सि॒। दक्षि॑णा। दिक्। स॒म्राडिति॑ स॒म्ऽराट्। अ॒सि॒। प्र॒तीची॑। दिक्। स्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। उदी॑ची। दिक्। अधि॑प॒त्नीत्यधि॑ऽपत्नी। अ॒सि॒। बृ॒ह॒ती। दिक् ॥१३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:13


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! जो तू (प्राची) पूर्व (दिक्) दिशा के तुल्य (राज्ञी) प्रकाशमान (असि) है, (दक्षिणा) दक्षिण (दिक्) दिशा के समान (विराट्) अनेक प्रकार का विनय और विद्या के प्रकाश से युक्त (असि) है, (प्रतीची) पश्चिम (दिक्) दिशा के सदृश (सम्राट्) चक्रवर्ती राजा के सदृश अच्छे सुखयुक्त पृथिवी पर प्रकाशमान (असि) है, (उदीची) उत्तर (दिक्) दिशा के तुल्य (स्वराट्) स्वयं प्रकाशमान (असि) है, (बृहती) बड़ी (दिक्) ऊपर-नीचे की दिशा के तुल्य (अधिपत्नी) घर में अधिकार को प्राप्त हुई (असि) है, सो तू सब पति आदि को तृप्त कर ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे दिशा सब ओर से अभिव्याप्त बोध करने हारी चञ्चलतारहित हैं, वैसे ही स्त्री शुभ गुण, कर्म और स्वभावों से युक्त होवे ॥१३ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(राज्ञी) राजमाना (असि) (प्राची) पूर्वा (दिक्) दिगिव (विराट्) विविधविनयविद्याप्रकाशयुक्ता (असि) (दक्षिणा) (दिक्) दिगिव (सम्राट्) सम्यक् सुखे भूगोले राजमाना (असि) (प्रतीची) पश्चिमा (दिक्) (स्वराट्) या स्वयं राजते सा (असि) (उदीची) उत्तरा (दिक्) (अधिपत्नी) गृहेऽधिकृता स्त्री (असि) (बृहती) महती (दिक्) अध ऊर्ध्वा। [अयं मन्त्रः शत०८.३.१.१४ व्याख्यातः] ॥१३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! या त्वं प्राची दिगिव राज्ञ्यसि, दक्षिणा दिगिव विराडसि, प्रतीची दिगिव सम्राडस्युदीची दिगिव स्वराडसि, बृहती दिगिवाधिपत्न्यसि, सा त्वं सर्वान् पत्यादीन् प्रीणीहि ॥१३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा दिशः सर्वतोऽभिव्याप्ता विज्ञापिका अक्षुब्धाः सन्ति, तथैव स्त्री शुभगुणकर्मस्वभावैः सहिता स्यात् ॥१३ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे दिशा ही सगळीकडे व्याप्त असून स्थिर व बोध करणारी असते, तसेच स्त्रीनेही शुभ गुण, कर्म व स्वभाव यांनी युक्त व्हावे.