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वि॒श्वक॑र्मा त्वा सादयत्व॒न्तरि॑क्षस्य पृ॒ष्ठे व्यच॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्वतीम॒न्तरि॑क्षं यच्छा॒न्तरि॑क्षं दृꣳहा॒न्तरि॑क्षं॒ मा हि॑ꣳसीः। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑ऽपा॒नाय॑ व्या॒नायो॑दा॒नाय॑ प्रति॒ष्ठायै॑ च॒रित्राय॑। वा॒युष्ट्वा॒भिपा॑तु म॒ह्या स्व॒स्त्या छ॒र्दिषा॒ शन्त॑मेन॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द ॥१२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। त्वा॒। सा॒द॒य॒तु॒। अ॒न्तरि॑क्षस्य। पृ॒ष्ठे। व्यच॑स्वती॒मिति॒ व्यचः॑ऽवतीम्। प्रथ॑स्वतीम्। अ॒न्तरि॑क्षम्। य॒च्छ॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। दृ॒ꣳह॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। मा। हि॒ꣳसीः॒। विश्व॑स्मै। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नाय॑। व्या॒नाय॑। उ॒दा॒नाय॑। प्रति॒ष्ठायै॑। च॒रित्रा॑य। वा॒युः। त्वा॒। अ॒भि। पा॒तु। म॒ह्या। स्व॒स्त्या। छ॒र्दिषा॑। शन्त॑मेन। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। सी॒द॒ ॥१२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वही विषय अगले मन्त्र में उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! (विश्वकर्मा) सम्पूर्ण शुभ कर्म करने में कुशल पति जिस (व्यचस्वतीम्) प्रशंसित विज्ञान वा सत्कार से युक्त (प्रथस्वतीम्) उत्तम विस्तृत विद्यावाली (अन्तरिक्षस्य) प्रकाश के (पृष्ठे) एक भाग में (त्वा) तुझ को (सादयतु) स्थापित करे सो तू (विश्वस्मै) सब (प्राणाय) प्राण (अपानाय) अपान (व्यानाय) व्यान और (उदानाय) उदानरूप शरीर के वायु तथा (प्रतिष्ठायै) प्रतिष्ठा (चरित्राय) और शुभ कर्मों के आचरण के लिये (अन्तरिक्षम्) जलादि को (यच्छ) दिया कर (अन्तरिक्षम्) प्रशंसित शुद्ध किये जल से युक्त अन्न और धनादि को (दृंह) बढ़ा और (अन्तरिक्षम्) मधुरता आदि गुणयुक्त रोगनाशक आकाशस्थ सब पदार्थों को (मा हिंसीः) नष्ट मत कर, जिस (त्वा) तुझ को (वायुः) प्राण के तुल्य प्रिय पति (मह्या) बड़ी (स्वस्त्या) सुख रूप क्रिया (छर्दिषा) प्रकाश और (शन्तमेन) अति सुखदायक विज्ञान से तुझ को (अभिपातु) सब ओर से रक्षा करे सो तू (तया) उस (देवतया) दिव्य सुख देनेवाली क्रिया के साथ वर्त्तमान पतिरूप देवता के साथ (अङ्गिरस्वत्) व्यापक वायु के समान (ध्रुवा) निश्चल ज्ञान से युक्त (सीद) स्थिर हो ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे पुरुष स्त्री को अच्छे कर्मों में नियुक्त करे, वैसे स्त्री भी अपने पति को अच्छे कर्मों में प्रेरणा करे, जिस से निरन्तर आनन्द बढ़े ॥१२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(विश्वकर्मा) अखिलशुभक्रियाकुशलः (त्वा) त्वाम् (सादयतु) संस्थापयतु (अन्तरिक्षस्य) आकाशस्य (पृष्ठे) भागे (व्यचस्वतीम्) प्रशस्तं व्यचो विज्ञानं सत्करणं विद्यते यस्यास्ताम् (प्रथस्वतीम्) उत्तमविस्तीर्णविद्यायुक्ताम् (अन्तरिक्षम्) जलम्। अन्तरिक्षमित्युदकनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१२) (यच्छ) (अन्तरिक्षम्) प्रशस्तं शोधितमुदकम् (दृंह) (अन्तरिक्षम्) मधुरादिगुणयुक्तं रोगनाशकमुदकम् (मा) (हिंसीः) हिंस्याः (विश्वस्मै) समग्राय (प्राणाय) (अपानाय) (व्यानाय) (उदानाय) (प्रतिष्ठायै) (चरित्राय) शुभकर्माचाराय (वायुः) प्राण इव (त्वा) (अभि) (पातु) (मह्या) महत्या (स्वस्त्या ) सुखक्रियया (छर्दिषा) प्रकाशेन (शन्तमेन) अतिशयेन सुखकारकेण (तया) (देवतया) दिव्यसुखप्रदानक्रियया सह (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मवायुवत् (ध्रुवा) निश्चलज्ञानयुक्ता (सीद) स्थिरा भव। [अयं मन्त्रः शत०८.३.१.९-१० व्याख्यातः] ॥१२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! विश्वकर्मा पतिर्यां व्यचस्वतीं प्रथस्वतीमन्तरिक्षस्य पृष्ठे त्वा सादयतु। सा त्वं विश्वस्मै प्राणायाऽपानाय व्यानायोदानाय प्रतिष्ठायै चरित्रायान्तरिक्षं यच्छाऽन्तरिक्षं दृंहान्तरिक्षं मा हिंसीः। यो वायुः प्राण इव प्रियस्तव स्वामी मह्या स्वस्त्या छर्दिषा शन्तमेन त्वा त्वामभिपातु, सा त्वं तया पत्याख्यया देवतया सहाङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पुरुषः स्त्रियं सत्कर्मसु नियोजयेत् तथा स्त्र्यपि स्वपतिं च प्रेरयेत्, यतः सततमानन्दो वर्द्धेत ॥१२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. पुरुषाने स्त्रीला चांगल्या कामात प्रेरणा द्यावी, तसेच स्त्रीनेही आपल्या पतीला चांगल्या कामात प्रेरित करावे, ज्यामुळे आनंदाची वृद्धी होईल.