वांछित मन्त्र चुनें

इन्द्रा॑ग्नी॒ऽ अव्य॑थमाना॒मिष्ट॑कां दृꣳहतं यु॒वम्। पृ॒ष्ठेन॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽ अ॒न्तरि॑क्षं च॒ विबा॑धसे ॥११ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्रा॑ग्नी॒ इतीन्द्रा॑ग्नी। अव्य॑थमानाम्। इष्ट॑काम्। दृ॒ꣳह॒त॒म्। यु॒वम्। पृ॒ष्ठेन॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॒ द्यावा॑ऽपृथि॒वी। अ॒न्तरि॑क्षम्। च॒। वि। बा॒ध॒से॒ ॥११ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:14» मन्त्र:11


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्राग्नी) बिजुली और सूर्य्य के समान वर्त्तमान स्त्री-पुरुषो ! (युवम्) तुम दोनों (अव्यथमानाम्) जमी हुई बुद्धि को प्राप्त होके (इष्टकाम्) र्इंट के समान गृहाश्रम को (दृंहतम्) दृढ़ करो। जैसे (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि (पृष्ठेन) पीठ से (अन्तरिक्षम्) आकाश को बाँधते हैं, वैसे तुम दुःख (च) और शत्रुओं को बाँधा करो। हे पुरुष ! जैसे तू इस अपनी स्त्री की पीड़ा को (विबाधसे) विशेष करके हटाता है, वैसे यह स्त्री भी तेरी सकल पीड़ा को हरा करे ॥११ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में श्लेष और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे बिजुली और सूर्य जल वर्षा के ओषधि आदि पदार्थों को बढ़ाते हैं, वैसे ही स्त्री-पुरुष कुटुम्ब को बढ़ावें, जैसे प्रकाश और पृथिवी आकाश का आवरण करते हैं, वैसे गृहाश्रम के व्यवहारों को पूर्ण करें ॥११ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(इन्द्राग्नी) इन्द्रो विद्युच्चाग्नी सूर्य्यश्चेव (अव्यथमानाम्) अपीडितामचलिताम् (इष्टकाम्) इष्टं कर्म यस्यास्ताम् (दृंहतम्) वर्धेताम् (युवम्) युवाम् (पृष्ठेन) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (च) (वि) (बाधसे)। [अयं मन्त्रः शत०८.३.१.८ व्याख्यातः] ॥११ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्राग्नी इव वर्त्तमानौ स्त्रीपुरुषौ ! युवं युवामव्यथमानां प्रज्ञां प्राप्येष्टकामिव गृहाश्रमं दृंहतम्। यथा द्यावापृथिवी पृष्ठेनान्तरिक्षं बाधेते, तथा दुःखानि शत्रूंश्च बाधेथाम्। हे पुरुष ! यथा त्वमेतस्याः स्वपत्न्याः पीडां विबाधसे तथा चेयमपि तव पीडां बाधताम् ॥११ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र श्लेषवाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथा विद्युत्सूर्य्यावपो वर्षित्वौषध्यादीन् वर्धयतस्तथैव स्त्रीपुरुषौ कुटुम्बं वर्धयेताम्। यथा प्रकाशः पृथिवी आकाशमाच्छादयतस्तथैव गृहाश्रमव्यवहारमलङ्कुर्याताम् ॥११ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात श्लेष व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे विद्युत व सूर्य हे जलवृष्टीद्वारे वृक्ष इत्यादी पदार्थांची वृद्धी करतात, तसेच स्त्री-पुरुषांनी कुटुंबाला वाढवावे. जसे प्रकाश व भूमी आकाशाला घेरतात तसे (दुःखाना व शत्रूंना बंदिस्त करून) गृहस्थाश्रमाचे सर्व व्यवहार पूर्ण करावेत.