इ॒ममू॑र्णा॒युं वरु॑णस्य॒ नाभिं॒ त्वचं॑ पशू॒नां द्वि॒पदां॒ चतु॑ष्पदाम्। त्वष्टुः॑ प्र॒जानां॑ प्रथ॒मं ज॒नित्र॒मग्ने॒ मा हि॑ꣳसीः पर॒मे व्यो॑मन्। उष्ट्र॑मार॒ण्यमनु॑ ते दिशामि॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो᳕ निषी॑द। उष्ट्रं॑ ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु ॥५० ॥
इ॒मम्। ऊ॒र्णा॒युम्। वरु॑णस्य। नाभि॑म्। त्वच॑म्। प॒शू॒नाम्। द्वि॒पदा॒मिति द्वि॒ऽपदा॑म्। चतु॑ष्पदाम्। चतुः॑ऽपदा॒मिति॒ चतुः॑ऽपदाम्। त्वष्टुः॑। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म्। प्र॒थ॒मम्। ज॒नित्र॑म्। अग्ने॑। मा। हि॒ꣳसीः॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन्। उष्ट्र॑म्। आ॒र॒ण्यम्। अनु॑। ते॒। दि॒शा॒मि॒। तेन॑। चि॒न्वा॒नः। त॒न्वः᳖। नि। सी॒द॒। उष्ट्र॑म्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥५० ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर किन पशुओं को न मारना और किन को मारना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनः के पशवो न हिंस्या हिंस्याश्चेत्याह ॥
(इमम्) (ऊर्णायुम्) अविम् (वरुणस्य) वरस्य प्राप्तव्यस्य सुखस्य (नाभिम्) निबन्धनम् (त्वचम्) (पशूनाम्) (द्विपदाम्) (चतुष्पदाम्) (त्वष्टुः) सुखप्रकाशकस्य (प्रजानाम्) (प्रथमम्) आदिमम् (जनित्रम्) उत्पत्तिनिमित्तम् (अग्ने) (मा) (हिंसीः) हिंस्याः (परमे) (व्योमन्) (उष्ट्रम्) (आरण्यम्) अरण्ये भवम् (अनु) (ते) (दिशामि) (तेन) (चिन्वानः) (तन्वः) (नि) (सीद) (उष्ट्रम्) इत्यादि पूर्ववत्। [अयं मन्त्रः शत०७.५.२.३५ व्याख्यातः] ॥५० ॥