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इ॒मꣳ सा॑ह॒स्रꣳ श॒तधा॑र॒मुत्सं॑ व्य॒च्यमा॑नꣳ सरि॒रस्य॒ मध्ये॑। घृ॒तं दुहा॑ना॒मदि॑तिं॒ जना॒याग्ने॒ मा हि॑ꣳसीः पर॒मे व्यो॑मन्। ग॒व॒यमा॑र॒ण्यमनु॑ ते दिशामि॒ तेन॑ चिन्वा॒नस्त॒न्वो᳕ निषी॑द। ग॒व॒यं ते॒ शुगृ॑च्छतु॒ यं द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु ॥४९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मम्। सा॒ह॒स्रम्। श॒तधा॑र॒मिति॑ श॒तऽधा॑रम्। उत्स॑म्। व्य॒च्यमा॑न॒मिति॑ विऽअ॒च्यमा॑नम्। स॒रि॒रस्य॑। मध्ये॑। घृ॒तम्। दुहा॑नाम्। अ॒दि॑तिम्। जना॑य। अग्ने॑। मा। हि॒ꣳसीः॒। प॒र॒मे। व्यो॑म॒न्निति॒ विऽओ॑मन्। ग॒व॒यम्। आ॒र॒ण्यम्। अनु॑। ते॒। दि॒शा॒मि॒। तेन॑। चि॒न्वा॒नः। त॒न्वः᳖। नि। सी॒द॒। ग॒व॒यम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥४९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:49


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कौन पशु न मारने और कौन मारने चाहियें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) दया को प्राप्त हुए परोपकारक राजन् ! तू (जनाय) मनुष्यादि प्राणी के लिये (इमम्) इस (साहस्रम्) असंख्य सुखों का साधन (शतधारम्) असंख्य दूध की धाराओं के निमित्त (व्यच्यमानम्) अनेक प्रकार से पालन के योग्य (उत्सम्) कुए के समान रक्षा करनेहारे वीर्य्यसेचक बैल और (घृतम्) घी को (दुहानाम्) पूर्ण करती हुई (अदितिम्) नहीं मारने योग्य गौ को (मा हिंसीः) मत मार और (ते) तेरे राज्य में जिस (आरण्यम्) वन में रहनेवाले (गवयम्) गौ के समान नीलगाय से खेती की हानि होती हो तो उस को (अनुदिशामि) उपदेश करता हूँ, (तेन) उसके मारने से सुरक्षित अन्न से (परमे) उत्कृष्ट (व्योमन्) सर्वत्र व्यापक परमात्मा और (सरिरस्य) विस्तृत व्यापक आकाश के (मध्ये) मध्य में (चिन्वानः) वृद्धि को प्राप्त हुआ तू (तन्वः) शरीर मध्य में (निषीद) निवास कर (ते) तेरा (शुक्) शोक (तम्) उस (गवयम्) रोझ को (ऋच्छतु) प्राप्त होवे और (यम्) जिस (ते) तेरे शत्रु का (द्विष्मः) हम लोग द्वेष करें, उस को भी (शुक्) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त होवे ॥४९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजपुरुषो ! तुम लोगों को चाहिये कि जिन बैल आदि पशुओं के प्रभाव से खेती आदि काम; जिन गौ आदि से दूध, घी आदि उत्तम पदार्थ होते हैं कि जिन के दूध आदि से सब प्रजा की रक्षा होती है, उनको कभी मत मारो और जो जन इन उपकारक पशुओं को मारें, उनको राजादि न्यायाधीश अत्यन्त दण्ड देवें और जो जङ्गल में रहनेवाले नीलगाय आदि प्रजा की हानि करें, वे मारने योग्य हैं ॥४९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः के पशवो नो हिंसनीया हिंसनीयाश्चेत्याह ॥

अन्वय:

(इमम्) (साहस्रम्) सहस्रस्यासंख्यातानां सुखानामयं साधकस्तम् (शतधारम्) शतमसंख्याता दुग्धधारा यस्मात् तम् (उत्सम्) कूपमिव पालकं गवादिकम् (व्यच्यमानम्) विविधप्रकारेण पालनीयम् (सरिरस्य) अन्तरिक्षस्य (मध्ये) (घृतम्) आज्यम् (दुहानाम्) प्रपूरयन्तीम् (अदितिम्) अखण्डनीयां गाम् (जनाय) मनुष्याद्याय प्राणिने (अग्ने) विवेकप्राप्तोपकारप्रकाशक राजन् (मा) (हिंसीः) (परमे) प्रकृष्टे (व्योमन्) व्योम्नि व्याप्तेऽन्तरिक्षे वर्त्तमानाम् (गवयम्) गोसदृशम् (आरण्यम्) (अनु) (ते) (दिशामि) (तेन) (चिन्वानः) पुष्टः सन् (तन्वः) (नि) (सीद) (गवयम्) (ते) (शुक्) शोकः (ऋच्छतु) (यम्) (द्विष्मः) (तम्) (ते) (शुक्) (ऋच्छतु)। [अयं मन्त्रः शत०७.५.२.३४ व्याख्यातः] ॥४९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! त्वं जनायेमं साहस्रं शतधारं व्यच्यमानमुत्समिव वीर्य्यसेचकं वृषभं घृतं दुहानामदितिं धेनुं च मा हिंसीः, स ते तुभ्यमपरमारण्यं गवयमनुदिशामि तेन परमे व्योमन् सरिरस्य मध्ये चिन्वानः संस्तन्वो निषीद। तं गवयं ते शुगृच्छतु यन्ते शत्रुं वयं द्विष्मस्तमति शुगृच्छतु शोकः प्राप्नोतु ॥४९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजमनुष्या येभ्यो वृषादिभ्यः कृष्यादीनि कर्माणि भवन्ति, याभ्यो गवादिभ्यो दुग्धादिपदार्था जायन्ते, यैः सर्वेषां रक्षणं भवति ते कदाचिन्नैव हिंसनीयाः। य एतान् हिंस्युस्तेभ्यो राजादिन्यायेशा अतिदण्डं दद्युः, ये च जाङ्गला गवयादयो प्रजाहानिं कुर्युस्ते हन्तव्याः ॥४९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजपुरुषांनो ! ज्या बैल इत्यादी पशूंपासून शेतीची कामे व गाईपासून दूध, तूप इत्यादी उत्तम पदार्थ मिळतात. ज्यांच्या दुधाने प्रजेचे रक्षण होते, त्यांना कधी मारू नका. जे लोक या उपकारक पशूंना मारतात त्यांना राजा इत्यादी न्यायाधीशांनी प्रचंड शिक्षा करावी व जंगलात राहणाऱ्या नीलगाय वगैरे प्राणी प्रजेची हानी करत असतील तर त्यांना मारावे.