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काण्डा॑त्काण्डात्प्र॒रोह॑न्ती॒ परु॑षःपरुष॒स्परि॑। ए॒वा नो॑ दूर्वे॒ प्रत॑नु स॒हस्रे॑ण श॒तेन॑ च ॥२० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

काण्डा॑त्काण्डा॒दिति॒ काण्डा॑त्ऽकाण्डात्। प्र॒रोह॒न्तीति॑ प्र॒ऽरोह॑न्ती। परु॑षःपरुष॒ इति॒ परु॑षःऽपरुषः। परि॑। ए॒व। नः॒। दू॒र्वे॒। प्र॒। त॒नु॒। स॒हस्रे॑ण। श॒तेन॑। च॒ ॥२० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:20


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह स्त्री कैसी हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! तू जैसे (सहस्रेण) असंख्यात (च) और (शतेन) बहुत प्रकार के साथ (काण्डात्काण्डात्) सब अवयवों और (परुषःपरुषः) गाँठ-गाँठ से (परि) सब ओर से (प्ररोहन्ती) अत्यन्त बढ़ती हुई (दूर्वे) दूर्वा घास होती है, वैसे (एव) ही (नः) हम को पुत्र-पौत्र और ऐश्वर्य से (प्रतनु) विस्तृत कर ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे दूर्वा ओषधि रोगों का नाश और सुखों को बढ़ानेहारी सुन्दर विस्तारयुक्त होती हुई बढ़ती है। वैसे ही विदुषी स्त्री को चाहिये कि बहुत प्रकार से अपने कुल को बढ़ावे ॥२० ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सा कीदृशी भवेदित्याह ॥

अन्वय:

(काण्डात्काण्डात्) ग्रन्थेर्ग्रन्थेः (प्ररोहन्ती) प्रकृष्टतया वर्द्धमाना (परुषःपरुषः) मर्मणो मर्मणः (परि) सर्वतः (एवा) निपातस्य च [अष्टा०६.३.१३६] इति दीर्घः (नः) अस्मान् (दूर्वे) दूर्वावद्वर्त्तमाने (प्र) (तनु) विस्तृणुहि (सहस्रेण) असंख्यातेन (शतेन) अनेकैः (च)। [अयं मन्त्रः शत०७.४.२.१४ व्याख्यातः] ॥२० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! त्वं यथा सहस्रेण शतेन च काण्डात्काण्डात् परुषःपरुषस्परि प्ररोहन्ती दूर्वे दूर्वौषधी वर्त्तते, तथैव नोऽस्मान् पुत्रपौत्रैश्वर्यादिभिः प्रतनु ॥२० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा दूर्वौषधी रोगप्रणाशिका सुखवर्द्धिका सुविस्तीर्णा चिरं स्थात्री सती वर्धते, तथा सती विदुषी स्त्री कुलं शतधा सहस्रधा वर्धयेत्, तथा पुरुषोऽपि प्रयतेत ॥२० ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी दूर्वा ही औषधी रोगाचा नाश करून सुख वाढविते व उत्तम प्रकारे विस्तारित होते, तसेच विद्वान स्त्रीने अनेक प्रकारे आपले कुल वाढवावे.