विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नायो॑दा॒नाय॑ प्रति॒ष्ठायै॑ च॒रित्रा॑य। अ॒ग्निष्ट्वा॒भिपा॑तु म॒ह्या स्व॒स्त्या छ॒र्दिषा॒ शन्त॑मेन॒ तया॑ दे॒वत॑याङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द ॥१९ ॥
विश्व॑स्मै। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नायेत्य॑पऽआ॒नाय॑। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। उ॒दा॒नायेत्यु॑त्ऽआ॒नाय॑। प्र॒ति॒ष्ठायै॑। प्र॒ति॒स्थाया॒ इति॑ प्रति॒ऽस्थायै॑। च॒रित्रा॑य। अ॒ग्निः। त्वा॒। अ॒भि। पा॒तु॒। म॒ह्या। स्व॒स्त्या। छ॒र्दिषा॑। शन्त॑मे॒नेति॒ शम्ऽत॑मेन। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। सी॒द॒ ॥१९ ॥
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर वे स्त्री-पुरुष आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तौ परस्परं कथं वर्त्तेयातामित्याह ॥
(विश्वस्मै) संपूर्णाय (प्राणाय) जीवनहेतवे (अपानाय) दुःखनिवारणाय (व्यानाय) विविधोत्तमव्यवहाराय (उदानाय) उत्कृष्टाय बलाय (प्रतिष्ठायै) सत्कृतये (चरित्राय) धर्माचरणाय (अग्निः) विज्ञानवान् पतिः (त्वा) त्वाम् (अभि) आभिमुख्यतया (पातु) रक्षतु (मह्या) महत्या (स्वस्त्या) प्रापकसुखक्रियया (छर्दिषा) प्रदीप्तेन (शन्तमेन) अत्यन्तसुखरूपेण कर्मणा (तया) (देवतया) विवाहितपतिरूपया सुखप्रदया (अङ्गिरस्वत्) कारणवत् (ध्रुवा) निश्चलस्वरूपा (सीद) अवस्थिता भव। [अयं मन्त्रः शत०७.४.२.८ व्याख्यातः] ॥१९ ॥