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प्र॒जाप॑तिष्ट्वा सादयत्व॒पां पृ॒ष्ठे स॑मु॒द्रस्येम॑न्। व्यच॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्वतीं॒ प्रथ॑स्व पृथि॒व्य᳖सि ॥१७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। त्वा॒। सा॒द॒य॒तु॒। अ॒पाम्। पृ॒ष्ठे। स॒मु॒द्रस्य॑। एम॑न्। व्यच॑स्वतीम्। प्रथ॑स्वतीम्। प्रथ॑स्व पृ॒थि॒वी। अ॒सि॒ ॥१७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:17


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा अपनी राणी को कैसे वर्त्तावे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विदुषि स्त्रि ! जैसे (प्रजापतिः) प्रजा का स्वामी (समुद्रस्य) समुद्र के (अपाम्) जलों के (एमन्) प्राप्त होने योग्य स्थान के (पृष्ठे) ऊपर नौका के समान (व्यचस्वतीम्) बहुत विद्या की प्राप्ति और सत्कार से युक्त (प्रथस्वतीम्) प्रशंसित कीर्त्तिवाली (त्वा) तुझ को (सादयतु) स्थापन करे, जिस कारण तू (पृथिवी) भूमि के समान सुख देनेवाली (असि) है, इसलिये स्त्रियों के न्याय करने में (प्रथस्व) प्रसिद्ध हो, वैसे तेरा पति पुरुषों का न्याय करे ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजपुरुष आदि को चाहिये कि आप जिस-जिस राजकार्य में प्रवृत्त हों, उस-उस कार्य में अपनी-अपनी स्त्रियों को भी स्थापन करें, जो-जो राजपुरुष जिन-जिन पुरुषों का न्याय करे, उस-उसकी स्त्री स्त्रियों का न्याय किया करें ॥१७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः पतिस्तां कथं वर्त्तयेदित्याह ॥

अन्वय:

(प्रजापतिः) प्रजायाः स्वामी (त्वा) त्वाम् (सादयतु) स्थापयतु (अपाम्) जलानाम् (पृष्ठे) उपरि (समुद्रस्य) सागरस्य (एमन्) प्राप्तव्ये स्थाने। अत्र सप्तम्या लुक्। अत्र एमन्नादिषु छन्दसि पररूपम् [अष्टा०वा०६.१.९१] इति वार्त्तिकेन पररूपम्। (व्यचस्वतीम्) बहु व्यचो व्यञ्चनं विद्यागमनं सत्करणं वा विद्यते यस्यास्ताम् (प्रथस्वतीम्) प्रथः प्रख्याता कीर्त्तिर्विद्यते यस्यास्ताम् (प्रथस्व) प्रख्याता भव (पृथिवी) भूमिरिव सुखप्रदा (असि)। [अयं मन्त्रः शत०७.४.२.६ व्याख्यातः] ॥१७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विदुषि प्रजापालिके राज्ञि ! यथा प्रजापतिः समुद्रस्यापामेमन् पृष्ठे नौकेव व्यचस्वतीं प्रथस्वतीं त्वा त्वां सादयतु, यतस्त्वं पृथिव्यसि, तस्मात् स्त्रीन्यायकरणे प्रथस्व, तथा ते पतिर्भवेत् ॥१७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजपुरुषादयः स्वयं यस्मिन् राजकर्मणि प्रवर्त्तेरँस्तस्मिन् स्वां स्वां स्त्रियं स्थापयेयुः। यः पुरुषः पुरुषाणां न्यायाधिकारे तिष्ठेत् तस्य स्त्री स्त्रीणां न्यायासने स्थिता भवेत् ॥१७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. पुरुष स्वतः ज्या राज्यकारभारात भाग घेतात त्या त्या कार्यात त्यांच्या स्त्रियांनीही भाग घ्यावा. राजपुरुषांनी पुरुषांचा न्याय करावा त्यांच्या स्त्रियांनीही स्त्रियांचा न्याय करावा.