बार पढ़ा गया
हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यथा) जिस प्रकार (पुरा) पूर्व (वाजयन्) प्राप्त करता हुआ (अहम्) मैं (यत्) जो (इमाः) इन (ओषधीः) ओषधियों को (हस्ते) हाथ में (आदधे) धारण करता हूँ, जिनसे (जीवगृभः) जीव के ग्राहक व्याधि और (यक्ष्मस्य) क्षय=राजरोग का (आत्मा) मूलतत्त्व (नश्यति) नष्ट हो जाता है, उन ओषधियों को श्रेष्ठ युक्तियों से उपयोग में लाओ ॥८५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सुन्दर हस्तक्रिया से ओषधियों को सिद्ध कर ठीक-ठीक क्रम से उपयोग में ला और क्षय आदि बड़े रोगों को निवृत्त करके आनन्द के लिये प्रयत्न करें ॥८५ ॥
बार पढ़ा गया
संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(यत्) याः (इमाः) (वाजयन्) प्रापयन् (अहम्) (ओषधीः) (हस्ते) (आदधे) (आत्मा) तत्त्वमूलम् (यक्ष्मस्य) क्षयस्य राजरोगस्य (नश्यति) (पुरा) पूर्वम् (जीवगृभः) यो जीवं गृह्णाति तस्य व्याधेः (यथा) येन प्रकारेण ॥८५ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा पुरा वाजयन्नहं ओषधीर्हस्त आदधे याभ्यो जीवगृभो यक्ष्मस्यात्मा नश्यति, ताः सद्युक्त्योपयुञ्जताम् ॥८५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः सुहस्तक्रिययौषधीः संसाध्य यथाक्रममुपयोज्य यक्ष्मादिरोगान्निवार्य्य नित्यमानन्दाय प्रयतितव्यम् ॥८५ ॥
बार पढ़ा गया
मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी स्वतः औषध तयार करून योग्य रीतीने उपयोगात आणावे व क्षयरोग इत्यादी भयंकर रोगांना नष्ट करून सदैव आनंद प्राप्त करण्याचा प्रयत्न करावा.