फिर मनुष्य लोग कैसे होकर क्या-क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - जो मनुष्य (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशक (एकः) एक ही असहाय परमेश्वर के सदृश (कामः) स्वीकार के योग्य (अग्निः) अग्नि के समान वर्त्तमान सभापति (भूतस्य) हो चुके और (भव्यस्य) आनेवाले समय के (प्रियेषु) इष्ट (धामसु) जन्म, स्थान और नामों में (विराजति) प्रकाशित होवे, वही राज्य का अधिकारी होने योग्य है ॥११७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभावों के अनुकूल अपने गुण, कर्म और स्वभाव करते हैं, वे ही चक्रवर्ती राज्य भोगने के योग्य होते हैं ॥११७ ॥ इस अध्याय में स्त्री, पुरुष, राजा, प्रजा, खेती और पठन-पाठन आदि कर्म का वर्णन है, इससे इस अध्याय के अर्थ की पूर्व अध्याय के अर्थ के साथ सङ्गति समझनी चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमत्परमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना निर्मिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये द्वादशोऽध्यायः सम्पूर्णः ॥१२॥