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इ॒मं नो॑ देव सवितर्य॒ज्ञं प्रण॑य देवा॒व्य᳖ꣳ सखि॒विद॑ꣳ सत्रा॒जितं॑ धन॒जित॑ꣳ स्व॒र्जित॑म्। ऋ॒चा स्तोम॒ꣳ सम॑र्धय गाय॒त्रेण॑ रथन्त॒रं बृ॒हद् गा॑य॒त्रव॑र्त्तनि॒ स्वाहा॑ ॥८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मम्। नः॒। दे॒व॒। स॒वि॒तः॒। य॒ज्ञम्। प्र। न॒य॒। दे॒वा॒व्य᳖मिति॑ देवऽअ॒व्य᳖म्। स॒खि॒विद॒मिति॑ सखि॒ऽविद॑म्। स॒त्रा॒जित॒मिति॑ सत्रा॒ऽजित॑म्। ध॒न॒जित॒मिति॑ धन॒ऽजित॑म्। स्व॒र्जित॒मिति॑ स्वः॒ऽजित॑म्। ऋ॒चा। स्तोम॑म्। सम्। अ॒र्ध॒य॒। गा॒य॒त्रेण॑। र॒थ॒न्त॒रमिति॑ रथम्ऽत॒रम्। बृ॒हत्। गा॒य॒त्रव॑र्त्त॒नीति॑ गाय॒त्रऽव॑र्त्तनि। स्वाहा॑ ॥८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:8


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) सत्य कामनाओं को पूर्ण करने और (सवितः) अन्तर्यामिरूप से प्रेरणा करने हारे जगदीश्वर ! आप (नः) हमारे (इमम्) पीछे कहे और आगे जिसको कहेंगे उस (देवाव्यम्) दिव्य विद्वान् वा दिव्य गुणों की जिस से रक्षा हो (सखिविदम्) मित्रों को जिस से प्राप्त हों (सत्राजितम्) सत्य को जिससे जीतें (धनजितम्) धन की जिससे उन्नति होवे (स्वर्जितम्) सुख को जिस से बढ़ावें और (ऋचा) ऋग्वेद से जिस की (स्तोमम्) स्तुति हो उस (यज्ञम्) विद्या और धर्म का संयोग कराने हारे यज्ञ को (स्वाहा) सत्य क्रिया के साथ (प्रणय) प्राप्त कीजिये (गायत्रेण) गायत्री आदि छन्द से (गायत्रवर्त्तनि) गायत्री आदि छन्दों की गानविद्या (बृहत्) बड़े (रथन्तरम्) अच्छे यानों से जिस के पार हों, उस मार्ग को (समर्धय) अच्छे प्रकार बढ़ाइये ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य ईर्ष्या द्वेष आदि दोषों को छोड़ ईश्वर के समान सब जीवों के साथ मित्रभाव रखते हैं, वे संपत् को प्राप्त होते हैं ॥८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(इमम्) उक्तं वक्ष्यमाणं च (नः) अस्माकम् (देव) सत्यकामनाप्रद (सवितः) अन्तर्यामिरूपेण प्रेरक (यज्ञम्) विद्याधर्मसङ्गमयितारम् (प्र) (नय) प्रापय (देवाव्यम्) देवान् दिव्यान् विदुषो गुणान् वाऽवन्ति येन स देवावीस्तम्, अत्रौणादिक ईप्रत्ययः। (सखिविदम्) सखीन् सुहृदो विदन्ति येन तम् (सत्राजितम्) सत्रा सत्यं जयत्युत्कर्षति येन तम् (धनजितम्) धनं जयत्युत्कर्षति येन तम् (स्वर्जितम्) स्वः सुखं जयत्युत्कर्षति येन तम् (ऋचा) ऋग्वेदेन (स्तोमम्) स्तूयते यस्तम् (सम्) (अर्धय) वर्धय (गायत्रेण) गायत्रीप्रभृतिछन्दसैव (रथन्तरम्) रथै रमणीयैर्यानैस्तरन्ति येन तत् (गायत्रवर्त्तनि) गायत्रस्य वर्त्तनिर्मार्गो वर्त्तनं यस्मिन् तत् (बृहत्) महत् (स्वाहा) सत्यक्रियया वाचा वा। [अयं मन्त्रः शत०६.३.१.२० व्याख्यातः] ॥८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे देव सवितर्जगदीश ! त्वं न इमं देवाव्यं सखिविदं सत्राजितं धनजितं स्वर्जितमृचा स्तोमं यज्ञं स्वाहा प्रणय गायत्रेण गायत्रवर्त्तनि बृहद्रथन्तरं च समर्धय ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - ये जना ईर्ष्याद्वेषादिदोषान् विहायेश्वर इव सर्वैः सह सुहृद् भावमाचरन्ति, ते संवर्धितुं शक्नुवन्ति ॥८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे ईर्षा, द्वेष इत्यादी दोष दूर करून ईश्वराप्रमाणे सर्व जीवांबरोबर मित्रभाव ठेवतात त्यांना ऐश्वर्य प्राप्त होते.