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नाभा॑ पृथि॒व्याः स॑मिधा॒नेऽअ॒ग्नौ रा॒यस्पोषा॑य बृह॒ते ह॑वामहे। इ॒र॒म्म॒दं बृ॒हदु॑क्थं॒ यज॑त्रं॒ जेता॑रम॒ग्निं पृत॑नासु सास॒हिम् ॥७६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नाभा॑। पृ॒थि॒व्याः। स॒मि॒धा॒न इति॑ सम्ऽइधा॒ने। अ॒ग्नौ। रा॒यः। पोषा॑य। बृ॒ह॒ते। ह॒वा॒म॒हे॒। इ॒र॒म्म॒दमिती॑रम्ऽम॒दम्। बृ॒हदु॑क्थ॒मिति॑ बृ॒हत्ऽउ॑क्थम्। यज॑त्रम्। जेता॑रम्। अ॒ग्निम्। पृत॑नासु। सा॒स॒हिम्। सा॒स॒हिमिति॑ सस॒हिम् ॥७६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:76


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर ये मनुष्य लोग आपस में कैसे संवाद करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गृही लोगो ! जैसे हम लोग (बृहते) बड़े (रायः) लक्ष्मी के (पोषाय) पुष्ट करने हारे पुरुष के लिये (पृथिव्याः) पृथिवी के (नाभा) बीच (समिधाने) अच्छे प्रकार प्रज्वलित हुए (अग्नौ) अग्नि में और (पृतनासु) सेनाओं में (सासहिम्) अत्यन्त सहनशील (इरम्मदम्) अन्न से आनन्दित होनेवाले (बृहदुक्थम्) बड़ी प्रशंसा से युक्त (यजत्रम्) सङ्ग्राम करने योग्य (अग्निम्) बिजुली के समान शीघ्रता करने हारे (जेतारम्) विजयशील सेनापति पुरुष को (हवामहे) बुलाते हैं, वैसे तुम लोग भी इसको बुलाओ ॥७६ ॥
भावार्थभाषाः - पृथिवी का राज्य करते हुए मनुष्यों को चाहिये कि आग्नेय आदि अस्त्रों और तलवार आदि शस्त्रों का सञ्चय कर और पूर्ण बुद्धि तथा शरीरबल से युक्त पुरुष को सेनापति कर के निर्भयता के साथ वर्तें ॥७६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेते परस्परं कथं संवदेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(नाभा) नाभौ मध्ये (पृथिव्याः) (समिधाने) सम्यक् प्रदीप्ते (अग्नौ) वह्नौ (रायः) श्रियः (पोषाय) पोषणकराय (बृहते) महते (हवामहे) स्पर्द्धामहे (इरम्मदम्) य इरयाऽन्नेन माद्यति हृष्यति तम्। उग्रम्पश्येरम्मदपाणिन्धमाश्च ॥ (अष्टा०३.२.३७) इति खश् प्रत्ययान्तो निपातितः। (बृहदुक्थम्) बृहन्महदुक्थं प्रशंसनं यस्य तम् (यजत्रम्) सङ्गन्तव्यम् (जेतारम्) जयशीलम् (अग्निम्) विद्युद्वद्वर्त्तमानम् (पृतनासु) सेनासु (सासहिम्) अतिशयेन सोढारम्। [अयं मन्त्रः शत०६.६.३.९ व्याख्यातः] ॥७६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे गृहिणो ! यथा वयं बृहते रायस्पोषाय पृथिव्या नाभा समिधानेऽग्नौ पृतनासु सासहिमिरम्मदं बृहदुक्थं यजत्रमग्निमिव जेतारं सेनापतिं हवामहे तथा यूयमप्याह्वयत ॥७६ ॥
भावार्थभाषाः - भूमिराज्यं कुर्वद्भिर्जनैः शस्त्रास्त्राणि संचित्य पूर्णबुद्धिविद्याशरीरात्मबलसहितं पुरुषं सेनापतिं विधाय निर्भयतया प्रवर्तन्ताम् ॥७६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - पृथ्वीवर राज्य करून माणसांनी आग्नेय इत्यादी अस्त्रे व तलवार इत्यादी शस्त्रांचा संचय करावा व पूर्ण बुद्धी आणि शरीरबल यांनी युक्त पुरुषाला सेनापती करून निर्भयतेने वावरावे.