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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर भी वही उक्त विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रियो ! (वः) तुम्हारा और (नः) हमारा (इह) इस गृहाश्रम में (यः) जो (शिवतमः) अत्यन्त सुखकारी (रसः) कर्त्तव्य आनन्द है (तस्य) उस का (मातरः) (उशतीरिव) जैसे कामयमान माता अपने पुत्रों को सेवन करती है, वैसे (भाजयत) सेवन करो ॥५१ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्रियों को चाहिये कि जैसे माता-पिता अपने पुत्रों का सेवन करते हैं, वैसे अपने-अपने पतियों की प्रीतिपूर्वक सेवा करें, ऐसे ही अपनी-अपनी स्त्रियों की पति भी सेवा करें। जैसे प्यासे प्राणियों को जल तृप्त करता है, वैसे अच्छे स्वभाव के आनन्द से स्त्री-पुरुष भी परस्पर प्रसन्न रहें ॥५१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वय:
(यः) (वः) युष्माकम् (शिवतमः) अतिशयेन सुखकारी (रसः) आनन्दः (तस्य) (भाजयत) सेवयत (इह) अस्मिन् गृहाश्रमे (नः) अस्माकमस्मान् वा (उशतीरिव) यथा कामयमानाः (मातरः) जनन्यः ॥५१ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रियः ! वो न इह यः शिवतमो रसोऽस्ति तस्य मातरः पुत्रानुशतीरिव भाजयत ॥५१ ॥
भावार्थभाषाः - स्त्रीभिर्मातापितरौ पुत्रानिव स्वं स्वं पतिं स्वा स्वा पत्नी प्रीत्या सेवताम्। एवमेव स्वां स्वां स्त्रियं पतिश्च। यथा जलानि तृषातुरान् प्राणिनस्तृप्यन्ति, तथैव सुशीलतयानन्देन तृप्ताः सन्तु ॥५१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्याप्रमाणे आई-वडील आपल्या संतानांशी प्रेमाने वागतात त्याप्रमाणेच स्त्रियांनी आपल्या पतींशी वागून त्यांची सेवा करावी. पतींनीही आपापल्या पत्नींची सेवा करावी. ज्याप्रमाणे तृषार्त प्राण्यांना जल तृप्त करते त्याप्रमाणे चांगल्या स्वभावाच्या स्त्री-पुरुषांनी परस्पर प्रसन्न व आनंदी राहावे.