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प्रैतु॑ वा॒जी कनि॑क्रद॒न्नान॑द॒द्रास॑भः॒ पत्वा॑। भर॑न्न॒ग्निं पु॑री॒ष्यं᳕ मा पा॒द्यायु॑षः पु॒रा। वृषा॒ग्निं वृष॑णं॒ भर॑न्न॒पां गर्भ॑ꣳ समु॒द्रिय॑म्। अग्न॒ऽआया॑हि वी॒तये॑ ॥४६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। ए॒तु॒। वा॒जी। कनि॑क्रदत्। नान॑दत्। रास॑भः। पत्वा॑। भर॑न्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳕म्। मा। पा॒दि॒। आयु॑षः। पु॒रा। वृ॒षा॑। अ॒ग्निम्। वृष॑णम्। भर॑न्। अ॒पाम्। गर्भ॑म्। स॒मु॒द्रिय॑म्। अग्ने॑। आ। या॒हि॒। वी॒तये॑ ॥४६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:46


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) विद्वन् उत्तम सन्तान ! तू (कनिक्रदत्) चलते और (नानदत्) शीघ्र शब्द करते हुए (रासभः) देने योग्य (पत्वा) चलने वा (वाजी) घोड़ा के समान (आयुषः) नियत वर्षों की अवस्था से (पुरा) पहिले (मा) न (प्रैतु) मरे (पुरीष्यम्) रक्षा के हेतु पदार्थों में उत्तम (अग्निम्) बिजुली (भरन्) धारण करता हुआ (मा पादि) इधर-उधर मत भाग जैसे (वृषा) अति बलवान् (अपाम्) जलों के (समुद्रियम्) समुद्र में हुए (गर्भम्) स्वीकार करने योग्य (वृषणम्) वर्षा करने हारे (अग्निम्) सूर्य्य को (भरन्) धारण करता हुआ (वीतये) सुखों की व्याप्ति के लिये (आयाहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हो ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - राजा आदि मनुष्यों को योग्य है कि अपने सन्तानों को विषयों की लोलुपता से छुड़ा के ब्रह्मचर्य्य के साथ पूर्ण अवस्था को धारण कर अग्नि आदि पदार्थों के विज्ञान से धर्म्मयुक्त व्यवहार की उन्नति करावें ॥४६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स एव विषय उपदिश्यते ॥

अन्वय:

(प्र) (एतु) गच्छतु (वाजी) अश्वः (कनिक्रदत्) गच्छन् (नानदत्) भृशं शब्दं कुर्वन् (रासभः) दातुं योग्यः (पत्वा) पतति गच्छतीति (भरन्) धरन् (अग्निम्) विद्युतम् (पुरीष्यम्) पुरीषेषु पालनेषु साधुम् (मा) (पादि) गच्छ (आयुषः) नियतवर्षाज्जीवनात् (पुरा) पूर्वम् (वृषा) बलिष्ठः (अग्निम्) सूर्य्याख्यम् (वृषणम्) वर्षयितारम् (भरन्) (अपाम्) जलानाम् (गर्भम्) (समुद्रियम्) समुद्रे भवम् (अग्ने) विद्वन् (आ) (याहि) प्राप्नुहि (वीतये) विविधसुखानां व्याप्तये। [अयं मन्त्रः शत०६.४.४.७ व्याख्यातः] ॥४६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने सुसन्तान ! भवान् कनिक्रदन्नानदद्रासभः पत्वा वाजीवायुषः पुरा मा प्रैतु। पुरीष्यमग्निं भरन्मा पादि। इतस्ततो मागच्छ वृषापां गर्भं समुद्रियं वृषणमग्निं भरन् सन् वीतय आयाहि ॥४६ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्या विषयलोलुपतात्यागेन ब्रह्मचर्य्येण पूर्णजीवनं धृत्वाऽग्न्यादिपदार्थविज्ञानाद् धर्म्यं व्यवहारमुन्नयेयुः ॥४६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा इत्यादी लोकांनी आपल्या संतानांना विषयलंपटतेपासून दूर ठेवावे. त्यांनी ब्रह्मचर्याने पूर्ण तारुण्यावस्था प्राप्त करावी व अग्नी इत्यादी पदार्थांच्या विशेष ज्ञानाने धर्मव्यवहार संपन्न करावा.