वांछित मन्त्र चुनें

सीद॑ होतः॒ स्वऽउ॑ लो॒के चि॑कि॒त्वान्त्सा॒दया॑ य॒ज्ञꣳ सु॑कृ॒तस्य॒ योनौ॑। दे॒वा॒वीर्दे॒वान् ह॒विषा॑ यजा॒स्यग्ने॑ बृ॒हद्यज॑माने॒ वयो॑ धाः ॥३५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सीद॑। हो॒त॒रिति॑ होतः। स्वे। ऊँ॒ इत्यूँ॑। लो॒के। चि॒कि॒त्वान्। सा॒दय॑। य॒ज्ञम्। सु॒कृ॒तस्येति॑ सुऽकृ॒तस्य॑। योनौ॑। दे॒वा॒वीरिति॑ देवऽअ॒वीः। दे॒वान्। ह॒विषा॑। य॒जा॒सि॒। अग्ने॑। बृ॒हत्। यज॑माने। वयः॑। धाः॒ ॥३५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:35


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् का क्या काम है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् ! (होतः) दान देनेवाले (चिकित्वान्) विज्ञान से युक्त आप (लोके) देखने योग्य (स्वे) सुख में (सीद) स्थित हूजिये (सुकृतस्य) अच्छे करने योग्य कर्म करने हारे धर्म्मात्मा के (योनौ) कारण में (यज्ञम्) धर्मयुक्त राज्य और प्रजा के व्यवहार को (सादय) प्राप्त कराइये (देवावीः) विद्वानों से रक्षित और शिक्षित होते हुए आप (हविषा) देने-लेने योग्य न्याय से (देवान्) विद्वानों या दिव्य गुणों को (यजासि) सत्कार सेवा संयोग कीजिये (यजमाने) राजा आदि मनुष्यों में बड़ी (वयः) उमर को (धाः) धारण कीजिये ॥३५ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वान् लोगों को चाहिये कि इस जगत् में दो कर्म निरन्तर करें। प्रथम ब्रह्मचर्य्य और जितेन्द्रियता आदि की शिक्षा से शरीर को रोगरहित, बल से युक्त और पूर्ण अवस्थावाला करें। दूसरे विद्या और क्रिया की कुशलता के ग्रहण से आत्मा का बल अच्छे प्रकार साधें कि जिस से सब मनुष्य शरीर और आत्मा के बल से युक्त हुए सब काल में आनन्द भोगें ॥३५ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विदुषः किं कृत्यमस्तीत्याह ॥

अन्वय:

(सीद) अवस्थितो भव (होतः) दातर्ग्रहीतः (स्वे) सुखे (उ) (लोके) लोकनीये (चिकित्वान्) विज्ञानयुक्तः (सादय) गमय। अत्र अन्येषामपि दृश्यते [अष्टा०६.३.१३७] इति दीर्घः। (यज्ञम्) धर्म्यं राजप्रजाव्यवहारम् (सुकृतस्य) सष्ठुकृतस्य धार्मिकस्य (योनौ) कारणे (देवावीः) देवै रक्षितः शिक्षितश्च (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा (हविषा) दानग्रहणयोग्येन न्यायेन (यजासि) याजयेः (अग्ने) विद्वन् (बृहत्) महत् (यजमाने) राजादौ जने चिरञ्जीविनम् (वयः) दीर्घं जीवनम् (धाः) धेहि। [अयं मन्त्रः शत०६.४.२.६ व्याख्यातः] ॥३५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! होतश्चिकित्वाँस्त्वं स्वे लोके सीद। सुकृतस्य योनौ यज्ञं सादय। देवावीः सँस्त्वं हविषा देवान् यजासि यजमाने वयोधाः ॥३५ ॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भिरस्मिन् जगति द्वे कर्मणी सततं कार्य्ये। आद्यं ब्रह्मचर्य्यजितेन्द्रियत्वादिशिक्षया शरीरारोग्यबलादियुक्तं चिरञ्जीवनमुत्तरं विद्याक्रियाकौशलग्रहणेनात्मबलं च संसाध्यम्, यतः सर्वे मनुष्याः शरीरात्मबलयुक्ताः सन्तः सर्वदानन्देयुः ॥३५ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वान लोकांनी या जगात दोन प्रकारचे कर्म करावे. एक म्हणजे ब्रह्मचर्य व जितेन्द्रियता यांच्या साह्याने शरीर रोगरहित, बलयुक्त करून पूर्ण आयुष्य भोगावे. दुसरे म्हणजे विद्या व कर्मकौशल्य यांनी आत्म्याचे बल वाढवावे. सर्व माणसांनी या प्रकारे शरीर व आत्मा यांचे बल वाढवून सर्वकाळी आनंद भोगावा.