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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर गृहस्थ कैसा होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जो (वाजपतिः) अन्न आदि की रक्षा करने हारे गृहस्थों के समान (कविः) बहुदर्शी दाता गृहस्थ पुरुष (दाशुषे) दान देने योग्य विद्वान् के लिये (रत्नानि) सुवर्ण आदि उत्तम पदार्थ (दधत्) धारण करते हुए के समान (अग्निः) प्रकाशमान पुरुष (हव्यानि) देने योग्य वस्तुओं को (परि) सब ओर से (अक्रमीत्) प्राप्त होता है, उस को तू जान ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि अग्निविद्या के सहाय से पृथिवी के पदार्थों से धन को प्राप्त हो अच्छे मार्ग में खर्च कर और धर्मात्माओं को दान दे के विद्या के प्रचार से सब को सुख पहुँचावे ॥२५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुनर्गृहस्थः कीदृशो भवेदित्याह ॥
अन्वय:
(परि) सर्वतः (वाजपतिः) अन्नादिरक्षको गृहस्थ इव (कविः) क्रान्तदर्शनः (अग्निः) प्रकाशमानः (हव्यानि) होतुं ग्रहीतुं योग्यानि वस्तूनि (अक्रमीत्) क्रामति (दधत्) धरन् (रत्नानि) सुवर्णादीनि (दाशुषे) दातुं योग्याय विदुषे ॥२५ ॥
पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यो वाजपतिः कविर्दाता गृहस्थो दाशुषे रत्नानि दधदिवाग्निर्हव्यानि पर्य्यक्रमीत् तं त्वं जानीहि ॥२५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वानग्निना पृथिवीस्थपदार्थेभ्यो धनं प्राप्य सुमार्गे सत्पात्रेभ्यो दत्त्वा विद्याप्रचारेण सर्वान् सुखयेत् ॥२५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रत वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान माणसांनी अग्निविद्येच्या साह्याने पृथ्वीवरील धन प्राप्त करून घ्यावे व चांगल्या कामासाठी खर्च करावे. धर्मात्मा लोकांना दान करावे व विद्येचा प्रसार करून सर्वांना सुख द्यावे.