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यु॒क्तेन॒ मन॑सा व॒यं दे॒वस्य॑ सवि॒तुः स॒वे। स्व॒र्ग्या᳖य॒ शक्त्या॑ ॥२ ॥

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पद पाठ

यु॒क्तेन॑। मन॑सा। व॒यम्। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। स॒वे। स्व॒र्ग्या᳖येति॑ स्वः॒ऽग्या᳖य॒। शक्त्या॑ ॥२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:2


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उक्त विषय ही अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे योग और तत्त्वविद्या को जानने की इच्छा करनेहारे मनुष्यो ! जैसे (वयम्) हम योगी लोग (युक्तेन) योगाभ्यास किये (मनसा) विज्ञान और (शक्त्या) सामर्थ्य से (देवस्य) सब को चिताने तथा (सवितुः) समग्र संसार को उत्पन्न करने हारे ईश्वर के (सवे) जगद्रूप इस ऐश्वर्य में (स्वर्ग्याय) सुख प्राप्ति के लिये प्रकाश को अधिकाई से धारण करें, वैसे तुम लोग भी प्रकाश को धारण करो ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य परमेश्वर की इस सृष्टि में समाहित हुए योगाभ्यास ओर तत्त्वविद्या को यथाशक्ति सेवन करें, उनमें सुन्दर आत्मज्ञान के प्रकाश से युक्त हुए योग और पदार्थविद्या का अभ्यास करें, तो अवश्य सिद्धियों को प्राप्त हो जावें ॥२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(युक्तेन) कृतयोगाभ्यासेन (मनसा) विज्ञानेन (वयम्) योगिनः (देवस्य) सर्वद्योतकस्य (सवितुः) अखिलजगदुत्पादकस्य जगदीश्वरस्य (सवे) जगदाख्येऽस्मिन्नैश्वर्ये (स्वर्ग्याय) स्वः सुखं गच्छति येन तद्भावाय (शक्त्या) सामर्थ्येन। [अयं मन्त्रः शत०६.३.१.१४ व्याख्यातः] ॥२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे योगं तत्त्वविद्यां च जिज्ञासवो मनुष्याः! यथा वयं युक्तेन मनसा शक्त्या च देवस्य सवितुः सवे स्वर्ग्याय ज्योतिराभरेम तथा यूयमप्याभरत ॥२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि मनुष्याः परमेश्वरस्य सृष्टौ समाहिताः सन्तो योगं तत्त्वविद्यां च यथाशक्ति सेवेरँस्तेषु प्रकाशितात्मनः सन्तो योगं पदार्थविज्ञानं चाभ्यस्येयुस्तर्हि सिद्धीः कथं न प्राप्नुयुः ॥२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे परमेश्वराच्या या सृष्टीत मान्यता पावलेला योगाभ्यास व तत्त्वविद्या यांना यशाशक्ती ग्रहण करतील व आत्मज्ञानाने योगविद्या आणि पदार्थविद्येचा अभ्यास करतील त्यांना निश्चित सिद्धी प्राप्त होतील.