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मा त॑ऽइन्द्र ते व॒यं तु॑राषा॒डयु॑क्तासोऽअब्र॒ह्मता॒ विद॑साम। तिष्ठा॒ रथ॒मधि॒ यं व॑ज्रह॒स्ता र॒श्मीन् दे॑व यमसे॒ स्वश्वा॑न् ॥२२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा। ते॒। इ॒न्द्र॒। ते। व॒यम्। तु॒रा॒षा॒ट्। अयु॑क्तासः। अ॒ब्र॒ह्मता॑। वि। द॒सा॒म॒। तिष्ठ॑। रथ॑म्। अधि॑। यम्। व॒ज्र॒ह॒स्ते॒ति॑ वज्रऽहस्त। आ। र॒श्मीन्। दे॒व॒। य॒म॒से॒। स्वश्वा॒निति॑ सु॒ऽअश्वा॑न् ॥२२॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:22


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

प्रजापुरुषों को राजा के साथ कैसे वर्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देव) प्रकाशमान (इन्द्र) सभापति राजन् ! (वज्रहस्त) जिसके हाथों में वज्र के समान शस्त्र हो, उस आप के साथ (वयम्) हम राजप्रजापुरुष (ते) आप के सम्बन्ध में (अयुक्तासः) अधर्मकारी (मा) न होवें, (ते) आप की (अब्रह्मता) वेद तथा ईश्वर में निष्ठारहितता (मा) न हो और न (विदसाम) नष्ट करें। जो (तुराषाट्) शीघ्रकारी शत्रुओं को सहनेहारे आप जिन (रश्मीन्) घोड़े के लगाम की रस्सी और (स्वश्वान्) सुन्दर घोड़ों को (यमसे) नियम से रखते हैं और जिस (रथम्) रथ के ऊपर (अधितिष्ठ) बैठें, उन घोड़ों और उस रथ के हम लोग भी अधिष्ठाता होवें ॥२२॥
भावार्थभाषाः - राजा और प्रजा के पुरुषों को योग्य है कि राजा के साथ अयोग्य व्यवहार कभी न करें तथा राजा भी इन प्रजाजनों के साथ अन्याय न करे। वेद और ईश्वर की आज्ञा का सेवन करते हुए सब लोग एक सवारी एक बिछौने पर बैठें और एकसा व्यवहार करनेवाले होवें और कभी आलस्य प्रमाद से ईश्वर और वेदों की निन्दा वा नास्तिकता में न फंसें ॥२२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

प्रजाजनै राजप्रसङ्गे कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(मा) निषेधे (ते) तव (इन्द्र) सभेश राजन् ! (ते) तव (वयम्) राजप्रजाजनाः (तुराषाट्) तुरान् त्वरितान् शत्रून् सहते (अयुक्तासः) अधर्मकारिणः (अब्रह्मता) वेदेश्वरनिष्ठारहितता (वि) (दसाम) उपक्षयेम (तिष्ठ) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः। (अष्टा०६.३.१३५) इति दीर्घः (रथम्) (अधि) (यम्) (वज्रहस्त) वज्रतुल्यानि शस्त्राणि हस्तयोर्यस्य तत्सम्बुद्धौ (आ) (रश्मीन्) अश्वनियमार्था रज्जूः (देव) (यमसे) नियच्छसि (स्वश्वान्) शोभनाश्च तेऽश्वाश्च तान् ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.४.३.१४) व्याख्यातः ॥२२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे देवेन्द्र राजन् ! वज्रहस्त वयं ते तव सम्बन्धेऽयुक्तासो मा भवाम, ते तवाब्रह्मता मास्तु, विदसाम यस्तुराषाट् त्वं यान् रश्मीन् स्वश्वान् यमसे यं रथमधितिष्ठ, ताँस्तं च वयमप्यधितिष्ठेम ॥२२॥
भावार्थभाषाः - राजप्रजाजना राज्ञा सहायोग्यं व्यवहारं कदाचिन्न कुर्य्युः, राजा चैतै सहान्यायं न कुर्यात्। वेदेश्वराज्ञानुष्ठानाः सन्तः सर्वे समानयानासनव्यवहाराः स्युः। न कदाचिदालस्ये प्रमादे वेदेश्वरनिन्दामये नास्तिकत्वे वा वर्त्तेरन् ॥२२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा व प्रजा यांनी एकमेकांशी कधीही अयोग्य व्यवहार करता कामा नये. वेद व ईश्वराच्या आज्ञेनुसार सर्वांचे आसन व वाहन एक समान असावे. सर्वांचा एकमेकांशी व्यवहार सारखा असावा. आळसाने व प्रमादाने ईश्वर व वेद यांची कधीही निंदा करू नये किंवा नास्तिक बनू नये.