वांछित मन्त्र चुनें

इन्द्र॑स्य॒ वज्रो॑ऽसि मि॒त्रावरु॑णयोस्त्वा प्रशा॒स्त्रोः प्र॒शिषा॑ युनज्मि। अव्य॑थायै त्वा स्व॒धायै॒ त्वाऽरि॑ष्टो॒ अर्जु॑नो म॒रुतां॑ प्रस॒वेन॑ ज॒यापा॑म॒ मन॑सा॒ समि॑न्द्रि॒येण॑ ॥२१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इन्द्र॑स्य। वज्रः॑। अ॒सि॒। मि॒त्रावरु॑णयोः। त्वा॒। प्र॒शा॒स्त्रो॑रिति॑ प्रऽशा॒स्त्रोः। प्र॒शिषेति॑ प्र॒ऽशिषा॑। यु॒न॒ज्मि॒। अव्य॑थाय। त्वा॒। स्व॒धायै॑। त्वा॒। अरि॒ष्टः॑। अर्जु॑नः। म॒रुता॑म्। प्र॒स॒वेनेति॑ प्रऽस॒वेन॑। ज॒य॒। आपा॑म। मन॑सा। सम्। इ॒न्द्रि॒येण॑ ॥२१॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:21


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् पुरुषों को क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जो आप (अरिष्टः) किसी के मारने में न आनेवाले (अर्जुनः) प्रशंसा के योग्य रूप से युक्त (इन्द्रस्य) परम ऐश्वर्य्यवाले का (वज्रः) शत्रुओं के लिये वज्र के समान (असि) हैं, जिस (त्वा) आपको (अव्यथायै) पीड़ा न होने के लिये (प्रशास्त्रोः) सब को शिक्षा देनेवाले (मित्रावरुणयोः) सभा और सेना के स्वामी की (प्रशिषा) शिक्षा से मैं (युनज्मि) समाहित करता हूँ (मरुताम्) ऋत्विज लोगों के (प्रसवेन) करने से (स्वधायै) अपनी चीज को धारण करना रूप राजनीति के लिये जिस (त्वा) आपका योगाभ्यास से चिन्तन करता हूँ, (मनसा) विचारशील मन (इन्द्रियेण) जीव से सेवन की हुई इन्द्रिय से जिस (त्वा) आपको हम लोग (समापाम) सम्यक् प्राप्त होते हैं, सो आप (जय) दुष्टों को जीत के निश्चिन्त उत्कृष्ट हूजिये ॥२१॥
भावार्थभाषाः - विद्वानों को चाहिये कि राजा और प्रजापुरुषों को धर्म और अर्थ की सिद्धि के लिये सदा शिक्षा देवें, जिससे ये किसी को पीड़ा देने रूप राजनीति से विरुद्ध कर्म न करें। सब प्रकार बलवान् होके शत्रुओं को जीतें, जिससे कभी धन-सम्पत्ति की हानि न होवे ॥२१॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्यस्य (वज्रः) विज्ञापकः (असि) (मित्रावरुणयोः) सभासेनेशयोः (त्वा) त्वाम् (प्रशास्त्रोः) सर्वस्य प्रकाशनकर्त्रोः (प्रशिषा) प्रशासनेन (युनज्मि) समादधे (अव्यथायै) अविद्यामानपीडायै क्रियायै (त्वा) (स्वधायै) स्ववस्तुधारणलक्षणायै राजनीत्यै (त्वा) (अरिष्टः) अहिंसितः (अर्जुनः) प्रशस्तं रूपं विद्यतेऽस्य सः। अर्शआदित्वादच्। अर्जुनमिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (मरुताम्) ऋत्विजाम् (प्रसवेन) प्रेरणेन (जय) उत्कर्ष (आपाम) आप्नुयाम (मनसा) मननशीलेन (सम्) (इन्द्रियेण) इन्द्रेण जीवेन जुष्टेन प्रीतेन वा ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.४.३.४-१०) व्याख्यातः ॥२१॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! यस्त्वमरिष्टोऽर्जुन इन्द्रस्य वज्रोऽसि, यं त्वाऽव्यथायै प्रशास्त्रोर्मित्रावरुणयोः प्रशिषाऽहं युनज्मि। मरुतां प्रसवेन स्वधायै यं त्वा युनज्मि। मनसेन्द्रियेण यं त्वा वयं समापाम, स त्वं जय दुष्टान् जित्वोत्कर्ष ॥२१॥
भावार्थभाषाः - विद्वद्भी राजा प्रजापुरुषाश्च धर्मार्थं सदा प्रशासनीयाः। यत एते पीडां राजनीतिविरुद्धं कर्म नाचरेयुः। सर्वतः प्राप्तबलाः शत्रून् जयेयुः, येन कदाप्यैश्वर्य्यस्य हानिर्न स्यात् ॥२१॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - विद्वानांनी राजा व प्रजा यांना धर्म आणि अर्थ यांच्या प्राप्तीसाठी नेहमी शिक्षण द्यावे. त्यामुळे ते राजनीतीच्या विरुद्ध कुणालाही त्रास देण्याचे काम करणार नाहीत. सर्व प्रकारे बलवान बनून शत्रूंना जिंकावे त्यामुळे धनसंपत्तीचा अपव्यय होणार नाही.