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वृष्ण॑ऽऊ॒र्मिर॑सि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ देहि॒ स्वाहा॑ वृष्ण॑ऽऊर्मिर॑सि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ देहि वृषसे॒नो᳖ऽसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रं मे॑ देहि॒ स्वाहा॑ वृषसे॒नो᳖ऽसि राष्ट्र॒दा रा॒ष्ट्रम॒मुष्मै॑ देहि ॥२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वृष्णः॑। ऊ॒र्मिः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। दे॒हि॒। स्वाहा॑। वृष्णः॑। ऊ॒र्मिः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्रऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। दे॒हि॒। वृ॒ष॒से॒न इति॑ वृषऽसे॒नः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। मे॒। दे॒हि॒। स्वाहा॑। वृ॒ष॒से॒न इति॑ वृषऽसे॒नः। अ॒सि॒। रा॒ष्ट्र॒दा इति॑ राष्ट्र॒ऽदाः। रा॒ष्ट्रम्। अ॒मुष्मै॑। दे॒हि॒ ॥२॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:2


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् लोग कैसे राजा से क्या-क्या मागें, यह उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! जिस कारण आप (वृष्णः) सुख के वर्षाकारक ज्ञान के प्राप्त कराने (राष्ट्रदाः) राज्य के देनेहारे (असि) हैं, इससे (मे) मुझे (स्वाहा) सत्यनीति से (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये। (वृष्णः) सुख की वृष्टि करनेवाले राज्य के (ऊर्मिः) जानने और (राष्ट्रदाः) राज्य प्रदान करनेहारे (असि) हैं, (अमुष्मै) उस राज्य की रक्षा करनेवाले को (राष्ट्रम्) न्याय से प्रकाशित राज्य को (देहि) दीजिये। (राष्ट्रदा) राजाओं के कर्मों के देनेहारे (वृषसेनः) बलवान् सेना से युक्त (असि) हैं, (मे) प्रत्यक्ष वर्त्तमान मेरे लिये (स्वाहा) सुन्दर वाणी से (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये तथा (राष्ट्रदाः) प्रत्यक्ष राज्य को देनेवाले (वृषसेनः) आनन्दित पुष्टसेना से युक्त (असि) हैं, इससे आप (अमुष्मै) उस परोक्ष पुरुष के लिये (राष्ट्रम्) राज्य को (देहि) दीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो राजपुरुष दुष्ट प्राणियों को जीत प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष श्रेष्ठ पुरुषों का सत्कार करके अधिकार और शोभा को देता है, उसके लिये चक्रवर्त्ती राज्य का अधिकार होना योग्य है ॥२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वांसः कीदृशं राजानं प्रति किं किं याचेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(वृष्णः) सुखवर्षकस्य विज्ञानस्य (ऊर्मिः) प्रापकः। अर्त्तेरुच्च। (उणा०४.४४) इति ऋधातोर्मिः (असि) (राष्ट्रदाः) राष्ट्रं ददातीति (राष्ट्रम्) राज्यम् (मे) मह्यम् (देहि) (स्वाहा) सत्यया नीत्या (वृष्णः) सुखवर्षकस्य राज्यस्य (ऊर्मिः) ज्ञाता (असि) (राष्ट्रदाः) राज्यप्रदाः (राष्ट्रम्) न्यायप्रकाशितम् (अमुष्मै) राज्यपालकाय (देहि) (वृषसेनः) वृषा बलयुक्ता सेना यस्य सः (असि) (राष्ट्रदाः) राज्ञां कर्मप्रदाः (राष्ट्रम्) राज्यम् (मे) प्रत्यक्षाय मह्यम् (देहि) (स्वाहा) सुष्ठु वाचा (वृषसेनः) हृष्टपुष्टसेनः (असि) (राष्ट्रदाः) (राष्ट्रम्) (अमुष्मै) परोक्षाय जनाय (देहि) ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.३.४.५-६) व्याख्यातः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! यतस्त्वं वृष्ण ऊर्मी राष्ट्रदा असि, तस्मान्मे स्वाहा राष्ट्रं देहि। वृष्ण ऊर्मी राष्ट्रदा असि, अमुष्मै राष्ट्रं देहि। राष्ट्रदा वृषसेनोऽसि, स्वाहा राष्ट्रं देहि। राष्ट्रदा वृषसेनोऽसि त्वममुष्मै राष्ट्रं देहि ॥२॥
भावार्थभाषाः - यो मनुष्यो दुष्टान् जित्वा प्रत्यक्षान् श्रेष्ठान् सत्कृत्य राज्याधिकारं राज्यश्रियं ददाति, स चक्रवर्त्ती भवितुं योग्यो जायते ॥२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो राजा दुष्टांना जिंकून प्रत्यक्षपणे व अप्रत्यक्षपणे श्रेष्ठ पुरुषांचा सत्कार करतो आणि त्यांचा अधिकार त्यांना देऊन त्याचे भले करतो अशा व्यक्तीलाच चक्रवती राज्याचा अधिकार देणे योग्य ठरते.