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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: जमदग्निर्भार्गवः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

या꣢स्ते꣣ धा꣡रा꣢ मधु꣣श्चु꣡तोऽसृ꣢꣯ग्रमिन्द ऊ꣣त꣡ये꣢ । ता꣡भिः꣢ प꣣वि꣢त्र꣣मा꣡स꣢दः ॥९७९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

यास्ते धारा मधुश्चुतोऽसृग्रमिन्द ऊतये । ताभिः पवित्रमासदः ॥९७९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याः꣢ । ते꣣ । धा꣡राः꣢꣯ । म꣣धुश्चु꣡तः꣢ । म꣣धु । श्चु꣡तः꣢꣯ । अ꣡सृ꣢꣯ग्रम् । इ꣣न्दो । ऊत꣡ये꣢ । ता꣡भिः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । आ । अ꣣सदः ॥९७९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 979 | (कौथोम) 3 » 2 » 6 » 1 | (रानायाणीय) 6 » 2 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में जगत्पति परमेश्वर से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्दो) आह्लाद देनेवाले, चन्द्रतुल्य, रस के भण्डार जगदीश्वर ! (याः ते) जो आपकी (मधुश्चुतः) मधुस्राविणी (धाराः) आनन्द की धाराएँ (ऊतये) हमारी रक्षा के लिए (असृग्रम्) आपके पास से छूटती हैं (ताभिः) उन धाराओं के साथ, आप (पवित्रम्) हमारे पवित्र अन्तरात्मा में (आसदः) विराजो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर के ध्यानी योगी लोग अपने अन्तरात्मा में झरते हुए आनन्द के झरने का अनुभव करते हुए परम तृप्ति प्राप्त करते हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्रादौ जगत्पतिं परमेश्वरं प्रार्थयते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्दो) आह्लादक चन्द्रोपम रसागार जगदीश्वर ! (याः ते) याः तव (मधुश्चुतः) मधुस्राविण्यः (धाराः) आनन्दतरङ्गिण्यः (ऊतये) अस्माकं रक्षणाय (असृग्रम्) त्वत्तः (विसृज्यन्ते) (ताभिः) धाराभिः,त्वम् (पवित्रम्) अस्माकं पवित्रम् अन्तरात्मानम् (आसदः) आसीद ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरं ध्यातारो योगिनः स्वान्तरात्मनि निर्झरन्तमानन्दनिर्झरमनुभवन्तः परां तृप्तिं प्राप्नुवन्ति ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६२।७।


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