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त्वं꣢ नृ꣣च꣡क्षा꣢ असि सोम वि꣣श्व꣢तः꣣ प꣡व꣢मान वृषभ꣣ ता꣡ वि धा꣢꣯वसि । स꣡ नः꣢ पवस्व꣣ व꣡सु꣢म꣣द्धि꣡र꣢ण्यवद्व꣣य꣡ꣳ स्या꣢म꣣ भु꣡व꣢नेषु जी꣣व꣡से꣢ ॥९५६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)त्वं नृचक्षा असि सोम विश्वतः पवमान वृषभ ता वि धावसि । स नः पवस्व वसुमद्धिरण्यवद्वयꣳ स्याम भुवनेषु जीवसे ॥९५६॥
त्व꣢म् । नृ꣣च꣡क्षाः꣢ । नृ꣣ । च꣡क्षाः꣢꣯ । अ꣣सि । सोम । विश्व꣡तः꣢ । प꣡व꣢꣯मान । वृ꣣षभः । ता꣢ । वि । धा꣣वसि । सः꣢ । नः꣣ । पवस्व । व꣡सु꣢꣯मत् । हि꣡र꣢꣯ण्यवत् । व꣣य꣢म् । स्या꣣म । भु꣡व꣢꣯नेषु । जी꣣व꣡से꣢ । ॥९५६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे पुनः परमात्मा का ही विषय है।
हे (सोम) सब जगत् को उत्पन्न करनेवाले, शुभ गुणों के प्रेरक परमात्मन् ! (त्वम्) आप (विश्वतः) सब ओर (नृचक्षाः) सब मनुष्यों के द्रष्टा (असि) हो। हे (पवमान) पवित्रकर्ता ! हे (वृषभ) सुखों की वर्षा करनेवाले ! आप (ता) उन दृश्यमान सब वस्तुओं में (विधावसि) व्याप्त हो। (सः) वह आप (वसुमत्) निवासक धन से युक्त, (हिरण्यवत्) सुवर्ण से युक्त, ज्योति से युक्त, वर्चस् से युक्त और यश से युक्त ऐश्वर्य को (नः) हमारे लिए (पवस्व) प्राप्त कराओ। (वयम्) हम (भुवनेषु) भूलोकों में (जीवसे) जीने के लिए (स्याम) समर्थ हों ॥२॥
जो परमेश्वर सर्वद्रष्टा, सर्वान्तर्यामी, धन-धान्य,चाँदी-सोना, राज्य आदि देनेवाला, ज्योतिप्रदाता, कीर्तिप्रदाता, आरोग्यप्रदाता और दीर्घायुप्रदाता है, उसकी उपासना करके उसके रक्षण तथा मार्ग-प्रदर्शन में हम सदा ही रहें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः परमात्मन एव विषयमाह।
हे (सोम) सर्वजगदुत्पादक शुभगुणप्रेरक परमात्मन् ! (त्वम् विश्वतः) सर्वतः (नृचक्षाः) सर्वेषां नृणां द्रष्टा (असि) वर्तसे। हे (पवमान) पवित्रकर्तः, (वृषभ) सुखवर्षक ! त्वम् (ता) तानि दृश्यमानानि सर्वाणि वस्तूनि (वि धावसि) व्याप्नोषि। (सः) तादृशः त्वम्(वसुमत्) वासकधनयुक्तम्, (हिरण्यवत्) सुवर्णयुक्तं ज्योतिर्युक्तं वर्चोयुक्तं यशोयुक्तं च ऐश्वर्यम्। [ज्योतिर्वै हिरण्यम्। तां० ब्रा० ६।६।१०, वर्चो वै हिरण्यम्। तै० ब्रा० १।८।९।१, यशो वै हिरण्यम्। ऐ० ब्रा० ७।१८।] (नः) अस्मभ्यम् (पवस्व) प्रापय। (वयम् भुवनेषु) भूलोकेषु (जीवसे) जीवितुम् (स्याम) प्रभवेम ॥२॥
यः परमेश्वरः सर्वद्रष्टा सर्वान्तर्यामी धनधान्यरजतसुवर्णराज्यादिप्रदो ज्योतिष्प्रदो यशस्प्रद आरोग्यप्रदो दीर्घायुष्प्रदश्चास्ति तमुपास्य तन्मार्गप्रदर्शने च वयं सदैव वर्तेमहि ॥२॥
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