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प꣡व꣢स्व दक्ष꣣सा꣡ध꣢नो दे꣣वे꣡भ्यः꣢ पी꣣त꣡ये꣢ हरे । म꣣रु꣡द्भ्यो꣢ वा꣣य꣢वे꣣ म꣡दः꣢ ॥९१९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्व दक्षसाधनो देवेभ्यः पीतये हरे । मरुद्भ्यो वायवे मदः ॥९१९॥
प꣡व꣢꣯स्व । द꣣क्षसा꣡ध꣢नः । द꣣क्ष । सा꣡ध꣢꣯नः । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । पी꣣त꣡ये꣢ । ह꣣रे । मरु꣡द्भ्यः꣢ । वा꣣य꣢वे꣢ । म꣡दः꣢꣯ ॥९१९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ४७४ पर ब्रह्म के पास से आनन्दरस-प्रवाह के विषय में व्याख्या हो चुकी है। यहाँ गुरु-शिष्य का विषय वर्णित करते हैं।
हे (हरे) दोषों को हरनेवाले आचार्य ! (दक्षसाधनः) विद्या, सच्चरित्रता, ब्रह्मचर्य आदि बलों को सिद्ध करनेवाले आप (देवेभ्यः पीतये) दिव्यगुणी शिष्यों के पान के लिए (पवस्व) ज्ञानरस प्रवाहित करो और (मरुद्भ्यः) उन प्राणायाम के साधक शिष्यों की (वायवे) प्रगति के लिए (मदः) उत्साहकारी होवो ॥१॥
आचार्य को चाहिए कि शिष्यों के लिए जो-जो आवश्यक हो, वह-वह सब करे, जिससे वे विद्या में पारङ्गत, सच्चरित्र, ब्रह्मचारी, प्रगतिशील और कर्मयोगी होवें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७४ क्रमाङ्के ब्रह्मणः सकाशादानन्दरसप्रवहणविषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयो वर्ण्यते।
हे (हरे) दोषहर्तः आचार्य ! (दक्षसाधनः)सच्चारित्र्यविद्याब्रह्मचर्यादिबलानां साधयिता त्वम् (देवेभ्यः पीतये) दिव्यगुणयुक्तानां शिष्याणां पानाय(पवस्व) ज्ञानरसं प्रवाहय। किञ्च (मरुद्भ्यः) तेषां प्राणायामसाधकानां शिष्याणां (वायवे) प्रगतये (मदः)उत्साहकरः भवेति शेषः। [देवेभ्यः मरुद्भ्यः इत्युभयत्र ‘षष्ठ्यर्थे चतुर्थीति वाच्यम्’ वा० २।३।६२ इति वार्तिकेन षष्ठ्यर्थे चतुर्थी] ॥१॥
आचार्येण शिष्याणां कृते यद्यदावश्यकं तत्तत् सर्वं कर्तव्यं येन ते विद्यापारंगताः सच्चरित्रा ब्रह्मचारिणः प्रगतिशीलाः कर्मयोगिनश्च भवेयुः ॥१॥
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