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त꣢द꣢द्या꣡ चि꣢त्त उ꣣क्थि꣡नोऽनु꣢꣯ ष्टुवन्ति पू꣣र्व꣡था꣢ । वृ꣡ष꣢पत्नी꣣रपो꣡ ज꣢या दि꣣वे꣡दि꣢वे ॥८८२॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

तदद्या चित्त उक्थिनोऽनु ष्टुवन्ति पूर्वथा । वृषपत्नीरपो जया दिवेदिवे ॥८८२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त꣢त् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । चि꣣त् । ते । उक्थि꣡नः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । स्तु꣡वन्ति । पूर्व꣡था꣢ । वृ꣡ष꣢꣯पत्नीः । वृ꣡ष꣢꣯ । प꣣त्नीः । अपः꣢ । ज꣢य । दिवे꣡दि꣢वे । दि꣣वे꣢ । दि꣣वे ॥८८२॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 882 | (कौथोम) 2 » 2 » 18 » 3 | (रानायाणीय) 4 » 6 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर उन्हीं परमेश्वर, आचार्य और राजा को सम्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र अर्थात् परमात्मन् आचार्य वा राजन् ! (पूर्वथा) पूर्वकाल के समान (अद्य) आज भी (उक्थिनः) स्तोताजन, शास्त्रों का अध्ययन करनेवाले शिष्यजन वा प्रशंसक प्रजाजन (ते) आपके (तत्) उस आनन्द-ज्ञान-बल-धन-प्रदान आदि के कर्म की (अनु स्तुवन्ति) अनुक्रम से स्तुति करते हैं। आप (दिवे दिवे) प्रतिदिन (वृषपत्नीः) वृष अर्थात् धर्म जिनका रक्षक है, ऐसे (अपः) कर्मों को (जय) वश में कीजिए व हमें प्राप्त कराइये, जैसे सूर्यरूप इन्द्र (वृषपत्नीः) बादल जिनका पति है, ऐसे (अपः) जलों को वश करता तथा बरसाता है ॥३॥ इस मन्त्र में श्लिष्ट व्यङ्ग्योपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे परमेश्वर सबके हृदय में धर्म की प्ररेणा करता है, वैसे ही गुरुजनों को शिष्यों में और राजा को प्रजाजनों में धर्म की प्रेरणा सदा करनी चाहिए ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि त एव सम्बोध्यन्ते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे इन्द्र परमात्मन्, आचार्य राजन् वा ! (पूर्वथा) पूर्वस्मिन् काले इव (अद्य) अस्मिन् कालेऽपि (उक्थिनः) स्तोतारो जनाः, शास्त्राध्येतारः शिष्याः, प्रशंसकाः प्रजाजना वा (ते) तव (तत्) आनन्दज्ञानबलधनप्रदानादिकं कर्म (अनु स्तुवन्ति) अनुक्रमेण कीर्तयन्ति। त्वम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (वृषपत्नीः) वृषो धर्मः पतिः रक्षको यासां ताः (अपः) कर्माणि (जय) वशे कुरु, अस्मान् प्रापय, यथा सूर्यरूपः इन्द्रः (वृषपत्नीः) वृषो मेघः पतिर्यासां ताः (अपः) उदकानि जयति वशीकरोति, वशीकृत्य च वर्षति ॥३॥ अत्र श्लिष्टा व्यङ्ग्योपमा ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा परमेश्वरः सर्वेषां हृदि धर्मप्रेरणां करोति तथैव गुरुभिः शिष्येषु नृपेण च प्रजाजनेषु धर्मप्रेरणा सदैव कार्या ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।१५।६, अथ० २०।६१।३।