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यो꣢ अ꣣ग्निं꣢ दे꣣व꣡वी꣣तये ह꣣वि꣡ष्मा꣢ꣳ आ꣣वि꣡वा꣢सति । त꣡स्मै꣢ पावक मृडय ॥८४६॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यो अग्निं देववीतये हविष्माꣳ आविवासति । तस्मै पावक मृडय ॥८४६॥
यः꣢ । अ꣣ग्नि꣢म् । दे꣣व꣡वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣡तये । हवि꣡ष्मा꣢न् । आ꣣वि꣡वा꣢सति । आ꣣ । वि꣡वा꣢꣯सति । त꣡स्मै꣢꣯ । पा꣣वक । मृडय ॥८४६॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः वही विषय है।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (यः) जो (हविष्मान्) आत्मसमर्पणवाला उपासक (देववीतये) दिव्य गुण-कर्मों की प्राप्ति के लिए (अग्निम्) सब सुख प्राप्त करानेवाले तुझ परमात्मा को (आ विवासति) पूजता है, (तस्मै) उस उपासक को, हे (पावक) पवित्रतादायक परमात्मन् ! आप (मृडय) सुखी कीजिए ॥ द्वितीय—यज्ञ के पक्ष में। (यः) जो (हविष्मान्) उत्तम होम के द्रव्यों से युक्त याज्ञिक मनुष्य (देववीतये) तेज की प्राप्ति के लिए अथवा दिव्य सुख के सम्पादनार्थ (अग्निम्) तुझ यज्ञाग्नि का (आ विवासति) होम से सत्कार करता है (तस्मै) उसे, हे (पावक) वायुशुद्धि तथा हृदयशुद्धि करनेवाले यज्ञाग्नि ! तू (मृडय) आरोग्य आदि प्राप्त कराने के द्वारा सुखी कर, अर्थात् यज्ञाग्नि सुखी करे ॥३॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥३॥
जैसे श्रद्धा के साथ आत्मसमर्पणपूर्वक उपासना किया गया परमेश्वर दिव्य गुण-कर्मों को प्रेरित करता है, वैसे ही उत्तमोत्तम हव्य-द्रव्यों से होम किया हुआ यज्ञाग्नि आरोग्य प्रदान से तथा हृदय में तेज, शूरता आदि दिव्य गुणों की प्रदीप्ति से सुखी करता है ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
प्रथमः—परमात्मपरः। (यः हविष्मान्) आत्मसमर्पणवान् उपासको जनः (देववीतये) दिव्यगुणकर्मणां प्राप्तये (अग्निम्) सर्वसुखप्रापकं परमात्मानं त्वाम् (आविवासति) परिचरति। [विवासतिः परिचरणकर्मा। निघं० ३।५।] (तस्मै) तम् उपासकम्। [अत्र कर्मणि चतुर्थी।] हे (पावक) पवित्रतासम्पादक परमात्मन् ! त्वम् (मृडय सुखय) ॥ द्वितीयः—यज्ञपरः। (यः हविष्मान्) उत्तमानि होतुं योग्यानि द्रव्याणि विद्यन्ते यस्य सः याज्ञिको जनः (देववीतये) तेजःप्राप्तये दिव्यसुखसम्पादनाय वा (अग्निम्) यज्ञवह्निं त्वाम् (आ विवासति) होमेन सत्करोति (तस्मै) तम्, हे (पावक) वायुशुद्धेः हृदयशुद्धेश्च सम्पादक यज्ञवह्ने ! त्वम् (मृडय) आरोग्यादिप्रापणेन सुखय। पावकोऽग्निः सुखयतु इति तात्पर्यम् ॥३॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥
यथा श्रद्धयाऽऽत्मसमर्पणेनोपासितः परमेश्वरो दिव्यगुणकर्माणि प्रेरयति तथोत्तमोत्तमहव्यद्रव्यैर्हुतो यज्ञवह्निरारोग्यप्रदानेन हृदि तेजःशौर्यादिदिव्यगुणानां समेधनेन च सुखयति ॥३॥
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