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य꣢द꣣द्भिः꣡ प꣢रिषि꣣च्य꣡से꣢ मर्मृ꣣ज्य꣡मा꣢न आ꣣यु꣡भिः꣢ । द्रो꣡णे꣢ स꣣ध꣡स्थ꣢मश्नुषे ॥७८५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)यदद्भिः परिषिच्यसे मर्मृज्यमान आयुभिः । द्रोणे सधस्थमश्नुषे ॥७८५॥
यत् । अ꣡द्भिः꣢ । प꣣रिषिच्य꣡से꣢ । प꣣रि । सिच्य꣡से꣢ । म꣣र्मृज्य꣡मा꣢नः । आ꣣यु꣡भिः꣢ । द्रो꣡णे꣢꣯ । स꣣ध꣡स्थ꣢म् । स꣣ध꣢ । स्थ꣣म् । अश्नुषे ॥७८५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः जगदीश्वर और राजा का वर्णन है।
प्रथम—जगदीश्वर के पक्ष में। हे राजन् ! (यत्) जब (आयुभिः) उपासक मनुष्यों से (मर्मृज्यमानः) बार-बार अत्यधिक सात्त्विक भावों से अलङ्कृत किये जाते हुए आप (अद्भिः) भक्तिरसों से (परिषिच्यसे) सींचे जाते हो, तब (द्रोणे) हृदयरूप द्रोणकलश में (सधस्थम्) स्थान (अश्नुषे) पा लेते हो ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे राजन् ! (यत्) जब (आयुभिः) राष्ट्रवासी प्रजाजनों द्वारा (मर्मृज्यमानः) मालाओं आदि से अलङ्कृत किये जाते हुए आप (अद्भिः) अभिषेकजलों से (परिषिच्यसे) सींचे जाते हो, तब (द्रोणे) लकड़ी के बने सिंहासन पर (सधस्थम्) स्थान (अश्नुषे) पा लेते हो ॥२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। सोम ओषधि के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥२॥
जैसे याज्ञिकों द्वारा सोम ओषधि का रस जलों के साथ द्रोणकलश में सींचा जाता है और जैसे प्रजाजनों द्वारा कोई सुयोग्य मनुष्य राजा के पद पर अभिषिक्त किया जाता है, वैसे ही स्तोताओं को चाहिए कि परमेश्वर को भक्तिरसों द्वारा हृदय में अभिषिक्त करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि जगदीश्वरो नरेश्वरश्च वर्ण्यते।
प्रथमः—जगदीश्वरपक्षे। हे जगदीश्वर ! (यत्) यदा (आयुभिः) उपासकैः मनुष्यैः। [आयुरिति मनुष्यनाम। निघं० २।३।] (मर्मृज्यमानः) भूयोभूयोऽतिशयेन सात्त्विकैर्भावैरलङ्क्रियमाणः त्वम् (अद्भिः) भक्तिरसैः (परिषिच्यसे) आर्द्रीक्रियसे, तदा (द्रोणे) हृदयरूपे द्रोणकलशे (सधस्थम्) स्थानम् (अश्नुषे) प्राप्नोषि। [अशूङ् व्याप्तौ संघाते च, स्वादिः] ॥ द्वितीयः—नरेश्वरपक्षे। हे नरेश्वर ! (यत्) यदा (आयुभिः) राष्ट्रवासिभिः प्रजाजनैः (मर्मृज्यमानः) माल्यादिभिरलङ्क्रियमाणः त्वम् (अद्भिः) अभिषेकजलैः (परिषिच्यसे) आर्द्रीकियसे, तदा (द्रोणे) द्रुममये सिंहासने (सधस्थम्) स्थानम् (अश्नुषे) प्राप्नोषि ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। सोमौषधिपक्षेऽप्यर्थो योजनीयः ॥२॥
यथा याज्ञिकैः सोमौषधिरसोऽद्भिः सह द्रोणकलशे परिषिच्यते, यथा वा प्रजाजनैः कश्चित् सुयोग्यो जनो राजपदेऽभिषिच्यते तथैव स्तोतृभिः परमेश्वरो भक्तिरसैर्हृदयेऽभिषेचनीयः ॥२॥
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