Notice: Undefined index: lan in /home/j2b3a4c/public_html/pages/samveda.php on line 166
प꣡व꣢ते हर्य꣣तो हरि꣢꣯रति ह्वराꣳसि रꣳह्या । अभ्यर्ष स्तोतृभ्यो वीरवद्यशः ॥७७३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवते हर्यतो हरिरति ह्वराꣳसि रꣳह्या । अभ्यर्ष स्तोतृभ्यो वीरवद्यशः ॥७७३॥
प꣡व꣢꣯ते । ह꣣र्य꣢तः । ह꣡रिः꣢꣯ । अ꣡त्ति꣢꣯ । ह्व꣡रा꣢꣯ꣳसि । र꣡ꣳह्या꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । अ꣣र्ष । स्तोतृ꣡भ्यः꣢ । वी꣣र꣡व꣢त् । य꣡शः꣢꣯ ॥७७३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीय ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ५७६ पर मनुष्य के उत्साह-कर्म के विषय में की गयी थी। यहाँ परमात्मा के विषय में वर्णन है।
(हर्यतः) चाहने योग्य, (हरिः) अज्ञान, पाप आदि का हर्ता जगदीश्वर (रंह्या) वेग के साथ (ह्वरांसि) अति कुटिलताओं को पार कराकर (पवते) उपासकों को पवित्र करता है। हे जगदीश्वर ! आप (स्तोतृभ्यः)स्तुति करनेवाले उपासकों के लिए (वीरवत्) वीर भावों से युक्त (यशः) कीर्ति (अभ्यर्ष) प्राप्त कराओ ॥२॥
परमात्मा के उपासक जन दुर्गुण, दुर्व्यसन, दुःख, पाप, कुटिलता आदियों से छूटकर वीर्य तथा उत्साह से युक्त होकर जीवन बिताते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीया ऋक् पूर्वार्चिके ५७६ क्रमाङ्के मनुष्योत्साहकर्मविषये व्याख्याता। अत्र परमात्मविषये वर्ण्यते।
(हर्यतः) कमनीयः (हरिः) अज्ञानपापादीनां हर्ता जगदीश्वरः (रंह्या) वेगेन (ह्वरांसि अति) कौटिल्यानि अतिगमय्य। [ह्वृ कौटिल्ये, सर्वधातुभ्योऽसुन् उ० ४।१९०।] (पवते) उपासकान् पुनाति। हे जगदीश्वर !त्वम् (स्तोतृभ्यः) स्तुतिपरायणेभ्यः उपासकेभ्यः (वीरवत्) वीरभावोपेतम् (यशः) कीर्तिम् (अभ्यर्ष)प्रापय ॥२॥
परमात्मोपासका जना दुर्गुणदुर्व्यसनदुःखपापकौटिल्यादिभ्यो मुक्ता वीर्योत्साहयुक्ताः सन्तः पवित्रं जीवनं यापयन्ति ॥२॥
Notice: Undefined index: lan in /home/j2b3a4c/public_html/pages/samveda.php on line 609
