वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

Notice: Undefined index: lan in /home/j2b3a4c/public_html/pages/samveda.php on line 166

उ꣡पा꣢स्मै गायता नरः꣣ पवमानायेन्दवे । अभि देवाꣳ इयक्षते ॥७६३॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे । अभि देवाꣳ इयक्षते ॥७६३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । अ꣣स्मै । गायत । नरः । प꣡व꣢꣯मानाय । इ꣡न्द꣢꣯वे । अ꣣भि꣢ । दे꣡वा꣢न् । इ꣡य꣢꣯क्षते ॥७६३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 763 | (कौथोम) 1 » 2 » 18 » 3 | (रानायाणीय) 2 » 5 » 3 » 3


0 बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीय ऋचा उत्तरार्चिक के आरम्भ में क्रमाङ्क ६५१ पर परमात्मोपासना के विषय में तथा गुरुओं के शिष्यों के प्रति कर्तव्य के विषय में व्याख्यात की गयी थी। यहाँ जीवात्मा और राजा का विषय वर्णित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—जीवात्मा के पक्ष में। हे (नरः) मनुष्यो ! तुम (देवान्) प्रकाशक मन, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रिय रूप देवों में (अभि इयक्षते) परस्पर सङ्गति करानेवाले, (पवमानाय) मन को पवित्र करनेवाले (अस्मै) इस (इन्दवे) तेजस्वी जीवात्मा के लिए अर्थात् तेजस्वी जीवात्मा को लक्ष्य करके (गायत) उद्बोधन-गीत गाओ ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (नरः) राष्ट्र के प्रजाजनो ! तुम (देवान्) विद्वान् जनों की (अभि इयक्षते) पूजा करनेवाले, (पवमानाय) राष्ट्र के प्रदेशों में इधर-उधर सञ्चार करनेवाले (अस्मै) इस (इन्दवे) तेजस्वी, धन-धान्य-दूध आदि से राष्ट्रभूमि को सींचनेवाले राजा के लिए अर्थात् राजा को लक्ष्य करके (गायत) उद्बोधन-गीत तथा अभिनन्दन-गीत गाओ ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यों को चाहिए कि अपने आत्मा को तथा स्वराष्ट्र के राजा को उद्बोधन देकर वैयक्तिक तथा राष्ट्रिय उन्नति करें ॥३॥ इस खण्ड में मनुष्यों के अभ्युदय और निःश्रेयस के लिए परमात्मा तथा राजा का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ द्वितीय अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥

0 बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तृतीया ऋग् उत्तरार्चिकारम्भे ६५१ क्रमाङ्के परमात्मोपासनाविषये गुरूणां शिष्यान् प्रति कर्त्तव्यविषये च व्याख्याता। अत्र जीवात्मनो नृपतेश्च विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—जीवात्मपक्षे। हे (नरः) मनुष्याः ! यूयम् (देवान्) प्रकाशकान् मनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियरूपान् (अभि इयक्षते) परस्परं संगमयित्रे। [अत्र स्वार्थे सन्।] (पवमानाय) मनःपावित्र्यं कुर्वाणाय (अस्मै) एतस्मै (इन्दवे) दीप्तिमते जीवात्मने, दीप्तिमन्तं जीवात्मानमभिलक्ष्य इति भावः (गायत) उद्बोधनगीतानि प्रोच्चारयत ॥ द्वितीयः—नृपतिपक्षे। हे (नरः) राष्ट्रस्य प्रजाजनाः ! यूयम् (देवान्) विदुषो जनान् (अभि इयक्षते) पूजयते, (पवमानाय) राष्ट्रप्रदेशेषु इतस्ततः संचरते। [पवते गतिकर्मा निघं० २।१४।] (अस्मै) एतस्मै (इन्दवे) तेजस्विने धनधान्यदुग्धादिभिः राष्ट्रभूमिक्लेदकाय च नृपतये। [इन्दुः इन्धेरुनत्तेर्वा। निरु० १०।२७।] (गायत) प्रोद्बोधनगीतानि अभिनन्दनगीतानि च प्रोच्चारयत ॥३॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जनैः स्वात्मानं स्वकीयराष्ट्रस्य नृपतिं चोद्बोध्य वैयक्तिको राष्ट्रियश्चोत्कर्षः सम्पादनीयः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जनानामभ्युदयनिःश्रेयसार्थं परमात्मनो नृपतेश्च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।११।१, य० ३३।६२, ऋषिः देवलः, देवता सोमः। साम० ६५१। २. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमम् ‘अध्यापकाध्येतारः कथं वर्तेरन्’ इति विषये व्याख्यातवान्।


Notice: Undefined index: lan in /home/j2b3a4c/public_html/pages/samveda.php on line 609