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ए꣣ष꣢ प्र꣣त्ने꣢न꣣ ज꣡न्म꣢ना दे꣣वो꣢ दे꣣वे꣡भ्यः꣢ सु꣣तः꣢ । ह꣡रि꣢ प꣣वि꣡त्रे꣢ अर्षति ॥७५८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एष प्रत्नेन जन्मना देवो देवेभ्यः सुतः । हरि पवित्रे अर्षति ॥७५८॥
ए꣣षः꣢ । प्र꣣त्ने꣡न꣢ । ज꣡न्म꣢꣯ना । दे꣣वः꣢ । दे꣣वे꣡भ्यः꣢ । सु꣣तः꣢ । ह꣡रिः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣣र्षति ॥७५८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा में परमात्मारूप सोम का वर्णन है।
(प्रत्नेन जन्मना) पुरातन स्वभाव के अनुसार (देवेभ्यः) प्रकाशक आत्मा तथा मन, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियों के लिए (सुतः) अभिषुत हुआ (एषः) यह (देवः) प्रकाशक (हरिः) पापहारी परमात्मारूप सोम (पवित्रे) पवित्र हृदय में (अर्षति) पहुँचता है ॥१॥
सुचारू विधि से भली-भाँति आराधना किया गया परमात्मा अवश्य ही उपासक को अपनी अनुभूति कराता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमायामृचि परमात्मसोमं वर्णयति।
(प्रत्नेन जन्मना३) पुरातनेन स्वभावेन (देवेभ्यः) प्रकाशकेभ्यः आत्ममनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियेभ्यः (सुतः)अभिषुतः (एषः) अयम् (देवः) प्रकाशकः (हरिः)पापहारी परमात्मसोमः (पवित्रे) पवित्रे हृदये (अर्षति) गच्छति ॥१॥
सुचारुविधिना सम्यगाराधितः परमात्माऽवश्यमुपासकं स्वानुभूतिं कारयति ॥१॥
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