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इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ आ꣡ ग꣢तꣳ सु꣣तं꣢ गी꣣र्भि꣢꣫र्न꣣भो व꣡रे꣢ण्यम् । अ꣣स्य꣡ पा꣢तं धि꣣ये꣢षि꣣ता꣢ ॥६६९॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्राग्नी आ गतꣳ सुतं गीर्भिर्नभो वरेण्यम् । अस्य पातं धियेषिता ॥६६९॥
इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । आ । ग꣣तम् । सुत꣢म् । गी꣣र्भिः꣢ । न꣡भः꣢꣯ । व꣡रेण्य꣢꣯म् । अ꣣स्य꣢ । पा꣣तम् । धिया꣢ । इ꣣षि꣢ता ॥६६९॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में ‘इन्द्राग्नी’ नाम से जीवात्मा और मन का आह्वान किया गया है। इन्द्र आत्मा अर्थ में प्रसिद्ध है। अग्नि के विषय में शतपथ ब्राह्मण १०।१।२।३ में कहा है कि ‘मन ही अग्नि है’।
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! तुम दोनों (गीर्भिः) गुरुओं की वाणियों से (सुतम्) निष्पादित, (नभः) सूर्य के समान प्रकाशयुक्त (वरेण्यम्) वरणीय श्रेष्ठ ज्ञानरस को ग्रहण करने के लिए (आगतम्) आओ। (इषिता) तत्पर एवं प्रयत्नशील होकर तुम दोनों (धिया) बुद्धि द्वारा (अस्य) इस ज्ञान की (पातम्) रक्षा करो ॥१॥ इस मन्त्र में ‘नभः’ अर्थात् ‘सूर्य के समान प्रकाशमान’ में वाचकधर्मलुप्तोपमालङ्कार है ॥१॥
वाणी का अधिपति गुरु शिष्य को जिस ज्ञान का उपदेश करता है, उसे उसको सावधानी के साथ अपने आत्मा, मन और बुद्धि के योगपूर्वक सुनकर और उस पर मनन करके हृदय में धारण कर लेना चाहिए, उसका प्रचार करना चाहिए तथा उसके अनुसार आचरण करना-करवाना चाहिए ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ ‘इन्द्राग्नी’ इत्यनेन जीवात्मानं मनश्च आह्वयति। इन्द्रः आत्मा प्रसिद्धः। अग्निश्च मनः, ‘मन एवाग्निः’ श० १०।१।२।३ इति प्रामाण्यात्।
हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! युवाम् (गीर्भिः) गुरूणां वाग्भिः (सुतम्) अभिषुतम्, निष्पादितम् (नभः) सूर्यमिव प्रकाशमानम्। [नभः आदित्यो भवति, नेता रसानां, नेता भासां, ज्योतिषां प्रणयः, अपि वा भन एव स्याद् विपरीतः, न भातीति वा निरु० २।१४।] (वरेण्यम्) वरणीयं श्रेष्ठं वा ज्ञानरूपं सोमरसं प्रति। [वृञ् वरणे धातोः ‘वृञ एण्यः’ उ० ३।९८, इति एण्यः प्रत्ययः।] (आ गतम्२) आगच्छतम्। (धिया) बुद्ध्या (इषिता) इषितौ तत्परौ प्रयतमानौ युवाम् (अस्य) एतस्य ज्ञानरसस्य इमं ज्ञानरसमित्यर्थः। [द्वितीयार्थे, षष्ठी।] (पातम्) रक्षतम् ॥१॥३ अत्र ‘नभ’ इत्यत्र वाचकधर्मलुप्तोपमालङ्कारः ॥१॥
वाचस्पतिना गुरुणा शिष्याय यज्ज्ञानमुपदिश्यते तत् तेन सावधानतया स्वात्ममनोबुद्धियोगपूर्वकं श्रुत्वा मत्वा च हृदि धारणीयं प्रचारणीयं तदनुकूलमाचरणीयं च ॥१॥
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