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आ꣡ त्वा꣢ ब्रह्म꣣यु꣢जा꣣ ह꣢री꣣ व꣡ह꣢तामिन्द्र के꣣शि꣡ना꣢ । उ꣢प꣣ ब्र꣡ह्मा꣢णि नः शृणु ॥६६७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ त्वा ब्रह्मयुजा हरी वहतामिन्द्र केशिना । उप ब्रह्माणि नः शृणु ॥६६७॥
आ । त्वा꣣ । ब्रह्मयु꣡जा꣢ । ब्र꣣ह्म । यु꣡जा꣢꣯ । हरी꣢꣯ इ꣡ति꣢ । व꣡ह꣢꣯ताम् । इ꣣न्द्र । केशि꣡ना꣢ । उ꣡प꣢꣯ । ब्र꣡ह्मा꣢꣯णि । नः꣡ । शृणु ॥६६७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।
हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (ब्रह्मयुजा) परमात्मा द्वारा शरीर में नियुक्त, (केशिना) प्रकाश को प्राप्त (हरी) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियरूप अश्व (त्वा) तुझे (वहताम्) ज्ञान और कर्म में प्रवृत्त करें। तू (नः) हम गुरुओं के (ब्रह्माणि) ज्ञानमय वचनों को (शृणु) सुन ॥२॥
शरीर में नियुक्त इन्द्रियों के सदुपयोग से और गुरुओं का उपदेश सुनकर सबको अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनस्तमेव विषयमाह।
हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! (ब्रह्मयुजा) ब्रह्मणा परमात्मना शरीरे नियुक्तौ (केशिना) केशिनौ प्राप्तप्रकाशौ [केशी काशनाद् वा प्रकाशनाद् वा। निरु० १२।२६।] (हरी) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपौ अश्वौ (त्वा) त्वाम् (वहताम्) ज्ञाने कर्मणि च प्रवर्तयेताम्। त्वम् (नः) गुरूणाम् अस्माकम् (ब्रह्माणि) ज्ञानवचांसि (शृणु) आकर्णय ॥२॥
शरीरे नियुक्तानामिन्द्रियाणां सदुपयोगेन गुरूणां चोपदेशश्रवणेन सर्वैरधिकाधिकं ज्ञानमर्जनीयम् ॥२॥
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