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प्र꣡प्र꣢ वस्त्रि꣣ष्टु꣢भ꣣मि꣡षं꣢ व꣣न्द꣡द्वी꣢रा꣣ये꣡न्द꣢वे । धि꣣या꣡ वो꣢ मे꣣ध꣡सा꣢तये꣣ पु꣢र꣣न्ध्या꣡ वि꣢वासति ॥३६०॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्रप्र वस्त्रिष्टुभमिषं वन्दद्वीरायेन्दवे । धिया वो मेधसातये पुरन्ध्या विवासति ॥३६०॥
प्र꣡प्र꣢꣯ । प्र । प्र꣣ । वः । त्रिष्टु꣢भ꣢म् । त्रि꣣ । स्तु꣡भ꣢꣯म् । इ꣡ष꣢꣯म् । व꣣न्दद्वी꣡रा꣣य । व꣣न्द꣢त् । वी꣣राय । इ꣡न्द꣢꣯वे । धि꣣या꣢ । वः꣣ । मेध꣡सा꣢तये । मे꣣ध꣢ । सा꣣तये । पु꣡र꣢꣯न्ध्या । पु꣡र꣢꣯म् । ध्या꣣ । आ꣢ । वि꣣वासति । ॥३६०॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में यह विषय है कि स्तुति किया हुआ परमेश्वर क्या करता है।
हे साथियो ! (वः) तुम लोग (वन्दद्वीराय) वीरजनों से वन्दित (इन्दवे) तेजस्वी, स्नेह की वर्षा करनेवाले और चन्द्रमा के समान आह्लादकारी इन्द्र परमात्मा के लिए (त्रिष्टुभम्) आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीनों सुखों को स्थिर करानेवाली अथवा ज्ञान, कर्म और उपासना इन तीन से स्थिर होनेवाली (इषम्) प्रीति और श्रद्धा को (प्र प्र) प्रकृष्टरूप से समर्पित करो, समर्पित करो। प्रीति और श्रद्धा से पूजित वह (मेधसातये) योगयज्ञ की पूर्णता के लिए (पुरन्ध्या) पूर्णता प्रदान करनेवाली (धिया) ऋतम्भरा प्रज्ञा से (आ विवासति) सत्कृत अर्थात् संयुक्त करता है ॥१॥
वीरजन भी अपनी विजय का कारण परमात्मा को ही मानते हुए जिस परमात्मा की बार-बार वन्दना करते हैं, उसकी सभी लोग प्रीति और श्रद्धा के साथ वन्दना क्यों न करें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्रादौ स्तुतः परमेश्वरः किं करोतीत्याह।
हे सखायः ! (वः) यूयम् (वन्दद्वीराय२) वन्दन्ते वीराः वीरजनाः यं स वन्दद्वीरः तस्मै, वीरजनस्तुतायेत्यर्थः (इन्दवे) दीप्ताय, स्नेहवर्षकाय, चन्द्रवदाह्लादकाय वा इन्द्राय परमात्मने। ‘इन्दुः इन्धेः उनत्तेर्वा’ निरु० १०।४१। (त्रिष्टुभम्३) त्रीणि आध्यात्मिकाधिभौतिकाधिदैविकानि (सुखानि) स्तोभते स्तभ्नाति या ताम्, यद्वा त्रिभिः ज्ञानकर्मोपासनैः स्तोभ्यते या ताम्। त्रि पूर्वात् स्तभु स्तम्भे धातोः क्विपि रूपम्। (इषम्) प्रीतिं श्रद्धां च (प्र प्र४) प्रार्पयत, प्रार्पयत। उपसर्गश्रुतेर्योग्यक्रियाध्याहारः। प्रीत्या श्रद्धया च पूजितः सः (मेधसातये) योगयज्ञस्य पूर्णतायै। मेध इति यज्ञनाम। निघं० ३।१७। सातिरिति सम्भजनार्थात् षण धातोः क्तिन्नन्तो निपातः। (पुरन्ध्या) पुरं पूर्तिं दधातीति पुरंधिः तया। पॄ पालनपूरणयोः धातोः क्विपि ‘पुर्’ इति जायते, तदुपपदाद् दधातेः किः प्रत्ययः। (धिया) ऋतम्भरया प्रज्ञया (आ विवासति) परिचरति, संयोजयतीत्यर्थः। विवासतिः परिचरणकर्मा। निघं० ३।५ ॥१॥
वीरा अपि स्वविजयस्य कारणं परमात्मानमेव मन्यमाना यं मुहुर्मुहुर्वन्दन्ते स सर्वैरेव प्रीत्या श्रद्धया च कुतो न वन्दनीयः ॥१॥
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