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क꣣वि꣢म꣣ग्नि꣡मुप꣢꣯ स्तुहि स꣣त्य꣡ध꣢र्माणमध्व꣣रे꣢ । दे꣣व꣡म꣢मीव꣣चा꣡त꣢नम् ॥३२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)कविमग्निमुप स्तुहि सत्यधर्माणमध्वरे । देवममीवचातनम् ॥३२॥
क꣣वि꣢म् । अ꣣ग्नि꣢म् । उ꣡प꣢꣯ । स्तु꣣हि । स꣣त्य꣡ध꣢र्माणम् । स꣣त्य꣢ । ध꣣र्माणम् । अध्वरे꣢ । दे꣣व꣢म् । अ꣣मीवचा꣡त꣢नम् । अ꣣मीव । चा꣡त꣢꣯नम् ॥३२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
भौतिक अग्नि के समान परमेश्वर के भी गुण सबके जानने योग्य हैं, यह कहते हैं।
प्रथम—परमेश्वर के पक्ष में। हे मनुष्य, तू (अध्वरे) हिंसादिरहित जीवनयज्ञ में (कविम्) वेदकाव्य के कवि एवं क्रान्तदर्शी, (सत्यधर्माणम्) सत्य गुण-कर्म-स्वभाववाले, (देवम्) सुख आदि के दाता, (अमीवचातनम्) अज्ञान आदि तथा व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य आदि योगविघ्नकारी मानस रोगों को विनष्ट करनेवाले (अग्निम्) तेजस्वी परमेश्वर की (उप स्तुहि) उपासना कर ॥ द्वितीय—भौतिक अग्नि के पक्ष में। हे मनुष्य, तू (अध्वरे) शिल्पयज्ञ में (कविम्) गतिमान्, (सत्यधर्माणम्) सत्य गुण-कर्म-स्वभाववाले, (देवम्) प्रकाशमान, प्रकाशक और व्यवहार-साधक, (अमीवचातनम्) ज्वरादि रोगों को नष्ट करनेवाले, (अग्निम्) आग, बिजली और सूर्य के (उप स्तुहि) गुणों का वर्णन कर ॥१२॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१२॥
मनुष्यों को शिल्पविद्या की सिद्धि के लिए जैसे भौतिक आग, बिजली और सूर्य का गुणज्ञानपूर्वक सेवन करना चाहिए, वैसे ही धर्म-प्राप्ति के लिए परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव का ज्ञान, वर्णन और अनुकरण करना चाहिए ॥१२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ भौतिकाग्निवत् परमेश्वरस्यापि गुणाः सर्वैर्वेदितव्या इत्याह।
प्रथमः—परमेश्वरपरः। हे मनुष्य, त्वम् (अध्वरे) हिंसादिरहिते जीवनयज्ञे (कविम्) वेदकाव्यस्य कर्तारम्, क्रान्तदर्शिनम्, (सत्यधर्माणम्) सत्या अवितथा धर्मा गुणकर्मस्वभावा यस्य तम्, (देवम्) सुखादीनां दातारम्, (अमीवचातनम्) अमीवान् अज्ञानादीन् व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्यादीन् वा योगविघ्नकरान् मानसान् रोगान् चातयति हिनस्ति यस्तम्।२ अम रोगे, बाहुलकादौणादिक ईवप्रत्ययः। चातयतिर्नाशने, निरु० ६।३०। (अग्निम्) तेजस्विनं परमेश्वरम् (उप स्तुहि) उपास्स्व ॥ अथ द्वितीयः—भौतिकाग्निपरः। हे मनुष्य, त्वम् (अध्वरे) शिल्पयज्ञे (कविम्) गतिमन्तम्, (सत्यधर्माणम्) सत्यगुणकर्मस्वभावम्, (देवम्) प्रकाशमानं प्रकाशकं व्यवहारसाधकं च, (अमीवचातनम्) ज्वरादिरोगनाशकम् (अग्निम्) पार्थिवाग्निं विद्युतं सूर्यं वा (उप स्तुहि) गुणैर्वर्णय ॥१२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१२॥
मनुष्यैः शिल्पविद्यासिद्धये यथा भौतिकोऽग्निर्विद्युत् सूर्यो वा गुणज्ञानपूर्वकं सेवनीयस्तथा धर्मप्राप्तये परमेश्वरस्य गुणकर्मस्वभावा ज्ञेया वर्णनीया अनुकरणीयाश्च ॥१२॥
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