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इ꣣म꣡ इन्द्रा꣢꣯य सुन्विरे꣣ सो꣡मा꣢सो꣣ द꣡ध्या꣢शिरः । ता꣡ꣳ आ मदा꣢य वज्रहस्त पी꣣त꣢ये꣣ ह꣡रि꣢भ्यां या꣣ह्यो꣢क꣣ आ꣢ ॥२९३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इम इन्द्राय सुन्विरे सोमासो दध्याशिरः । ताꣳ आ मदाय वज्रहस्त पीतये हरिभ्यां याह्योक आ ॥२९३॥
इ꣣मे꣢ । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । सु꣣न्विरे । सो꣡मा꣢꣯सः । द꣡ध्या꣢꣯शिरः । द꣡धि꣢꣯ । आ꣣शिरः । ता꣢न् । आ । म꣡दा꣢꣯य । व꣣ज्रहस्त । वज्र । हस्त । पीत꣡ये꣢ । ह꣡रि꣢꣯भ्याम् । या꣣हि । ओ꣡कः꣢꣯ । आ । ॥२९३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में इन्द्र को सोमपान के लिए बुलाया जा रहा है।
प्रथम—अतिथि के पक्ष में। (इमे) ये (दध्याशिरः) दही के साथ मिलाये हुए (सोमासः) सोमादि ओषधियों के रस (इन्द्राय) तुझ विद्वान् अतिथि के लिए (सुन्विरे) तैयार रखे हैं। हे (वज्रहस्त) हमारे दोषों को नष्ट करने के लिए उपदेशवाणीरूप वज्र को धारण करनेवाले विद्वन् ! (तान्) उन दधिमिश्रित सोमरसों को (मदाय) तृप्त्यर्थ (पीतये) पीने के लिए (हरिभ्याम्) ऋक् और साम के ज्ञान के साथ अथवा दो घोड़ों से चलनेवाले रथ पर बैठकर, मुझ गृहस्थ के (ओकः) घर पर (आयाहि) आइए ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (इमे) ये (दध्याशिरः) कर्मरूप दही के साथ मिलाये या पकाये हुए (सोमासः) हमारे श्रद्धा-रस (इन्द्राय) तुझ जगदीश्वर के लिए (सुन्विरे) तैयार किये हुए हैं। हे (वज्रहस्त) वज्र-धारी के समान दोषों को नष्ट करनेवाले परमेश्वर ! (तान्) उन कर्ममिश्रित श्रद्धारसों को (मदाय) तृप्त्यर्थ (पीतये) पान करने के लिए (हरिभ्याम्) जैसे कोई रथ में घोड़ों को नियुक्त करके वेगपूर्वक आता है, वैसे (ओकः) हमारे हृदय-सदन में (आयाहि) आइए ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है, परमात्मपक्ष में लुप्तोपमा भी है ॥१॥
जैसे दही में मिलाकर सोमादि ओषधियों का रस अतिथियों को समर्पित किया जाता है, वैसे ही श्रद्धारस को कर्म के साथ मिलाकर ही परमेश्वर को अर्पित करना चाहिए, क्योंकि कर्महीन भक्ति कुछ भी लाभ नहीं पहुँचाती है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथेन्द्रः सोमपानायाहूयते।
प्रथमः—अतिथिपरः। (इमे) एते (दध्याशिरः) दध्ना सह मिश्रिताः (सोमासः) सोमाद्योषधीनां रसाः (इन्द्राय) विदुषे अतिथये तुभ्यम् (सुन्विरे) अभिषुताः सज्जीकृताः सन्ति। हे (वज्रहस्त) अस्मद्दोषान् नाशयितुं वाग्रूपवज्रधर विद्वन् ! वाग् हि वज्रः। ऐ० ब्रा० ४।१। वज्रः उपदेशवाग् हस्ते पाणौ इव समीपे यस्य स वज्रहस्तः। (तान्) दधिमिश्रितान् सोमरसान् (मदाय) तृप्तये (पीतये) पानाय (हरिभ्याम्) ऋक्सामभ्याम् सह। ऋक्सामे वा इन्द्रस्य हरी। षड्विंश० १।१, यद्वा (हरिभ्याम्) यानहारकाभ्याम् अश्वाभ्याम्, अश्वद्वयनियुक्तं रथमारुह्येत्यर्थः। (ओकः) गृहस्थस्य मम गृहम् (आयाहि) आगच्छ ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपरः। (इमे) एते (दध्याशिरः) कर्मरूपेण दध्ना आशिरः मिश्रिताः परिपक्वा वा। दधाति पुष्णातीति दधि कर्म घनीभूतं पयो वा। डुधाञ् धातोः ‘आदृगमहनजनः किकिनौ लिट् च। अ० ३।२।१७१’ इति किः। ‘आशीः आश्रयणाद्वा आश्रपणाद् वा’ इति निरुक्तम् (६।८)। (सोमासः) अस्माकं श्रद्धारसाः (इन्द्राय) जगदीश्वराय तुभ्यम् (सुन्विरे) अभिषुताः सन्ति। हे (वज्रहस्त) वज्रपाणिः इव अस्मद्दोषाणां नाशक परमेश्वर ! (तान्) कर्ममिश्रितान् कर्मभिः परिपक्वान् वा श्रद्धारसान् (मदाय) तृप्त्यर्थम् (पीतये) पानाय (हरिभ्याम्) अश्वाभ्यामिव इति लुप्तोपमम्, यथा रथे अश्वौ नियुज्य वेगेन कश्चिदागच्छति तथेत्यर्थः। (ओकः) अस्मदीयं हृदयरूपं सदनम् (आयाहि) आगच्छ ॥१॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः, परमात्मपक्षे लुप्तोपमापि ॥१॥
यथा दध्ना संमिश्र्य सोमाद्योषधिरसोऽतिथिभ्यः समर्प्यते तथैव श्रद्धारसः कर्मणा संमिश्र्य परमेश्वराय समर्पणीयः, यतः कर्महीना भक्तिरकिञ्चित्करी खलु ॥१॥
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