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न꣡ हि व꣢꣯श्चर꣣मं꣢ च꣣ न꣡ वसि꣢꣯ष्ठः प꣣रिम꣡ꣳस꣢ते । अ꣣स्मा꣡क꣢म꣣द्य꣢ म꣣रु꣡तः꣢ सु꣣ते꣢꣫ सचा꣣ वि꣡श्वे꣢ पिबन्तु का꣣मि꣡नः꣢ ॥२४१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)न हि वश्चरमं च न वसिष्ठः परिमꣳसते । अस्माकमद्य मरुतः सुते सचा विश्वे पिबन्तु कामिनः ॥२४१॥
न꣢ । हि । वः꣣ । चरम꣢म् । च꣣ । न꣢ । व꣡सि꣢꣯ष्ठः । प꣣रिमँ꣡स꣢ते । प꣣रि । मँ꣡स꣢꣯ते । अ꣣स्मा꣡क꣢म् । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । म꣣रु꣡तः꣢ । सु꣣ते꣢ । स꣡चा꣢꣯ । वि꣡श्वे꣢꣯ । पि꣣बन्तु । कामि꣡नः꣢ ॥२४१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में आचार्य और परमात्मा का कार्य वर्णित किया है।
प्रथम—अध्ययनाध्यापन के पक्ष में। हे विद्यार्थीरूप मरुतो ! (वः) तुममें से (चरमं च न) हीनकोटिवाले भी विद्यार्थी को (वसिष्ठः) विद्या से बसानेवाला आचार्य (नहि) नहीं (परिमंसते) छोड़ता है, अर्थात् विद्या से वंचित नहीं करता है। (अद्य) आज (सुते) विद्यायज्ञ के प्रवृत्त हो जाने पर (अस्माकम्) हमारे (विश्वे) सब (कामिनः) विद्या-ग्रहण के इच्छुक (मरुतः) विद्यार्थी (सचा) साथ मिलकर (पिबन्तु) विद्या-रस का पान करें ॥ ‘मरुतः’ का यौगिक अर्थ है मरनेवाले। मृत्यु-रूप आचार्य के गर्भ में स्थित होकर पूर्व संस्कारों को छोड़कर (अर्थात् मरकर) विद्या से पुनर्जन्म प्राप्त करते हैं, इस कारण विद्यार्थी ‘मरुत्’ कहलाते हैं। अथर्ववेद में स्पष्ट ही आचार्य को मृत्यु कहा है (अथर्व० ११।५।१४), यह भी कहा है कि ‘‘आचार्य उपनयन संस्कार करके ब्रह्मचारी को गर्भ में धारण करता है, तीन रात्रि तक उसे अपने उदर में रखता है, फिर जब ब्रह्मचारी द्वितीय जन्म लेता है, अर्थात् विद्या पढ़कर स्नातक बनता है, तब उसे देखने के लिए अनेक विद्वान् जन आते हैं।’’ (अथर्व० ११।५।३) ॥ द्वितीय—कर्मफल-भोग के पक्ष में। हे मरणधर्मा मनुष्यो ! (वः) तुम्हारे बीच में (चरमं चन) एक को भी (वसिष्ठः) अतिशय बसानेवाला सर्वव्यापक परमेश्वर (नहि परिमंसते) कर्मफल दिये बिना नहीं छोड़ता है, अर्थात् प्रथम से लेकर अन्तिम तक सभी को कर्मफल प्रदान करता है। (अद्य) आज, बर्तमान काल में (सुते) उत्पन्न जगत् में (अस्माकम्) हमारे बीच में (विश्वे) सभी (कामिनः) अभ्युदय के इच्छुक (मरुतः) मरणधर्मा मनुष्य (सचा) साथ मिलकर (पिबन्तु) कर्मफलों का भोग करें ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥
जैसे वसिष्ठ परमेश्वर निरपवाद रूप में सभी जीवात्माओं को कर्मानुसार फल देता है, वैसे ही वसिष्ठ आचार्य ऐसी सरल शैली से शिष्यों को पढ़ाये, जिससे बिना अपवाद के सभी शिष्य विद्या के ग्रहण में समर्थ हों ॥९॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथाचार्यस्य परमात्मनश्च कृत्यमाह।
प्रथमः—अध्ययनाध्यापनपक्षे। मरुतो देवताः। हे मरुतः विद्यार्थिनः। युष्माकं मध्ये (चरमं च न) हीनकोटिकमपि विद्यार्थिनम् (वसिष्ठः२) विद्यया वासयितृतमः आचार्यः (नहि) नैव (परिमंसते३) परित्यजति, विद्यया वञ्चितं न करोतीत्यर्थः। परिपूर्वाद् मनु अवबोधने धातोर्लेटि ‘सिब्बहुलं लेटि’ अ० ३।१।३४ इति सिपि रूपम्। परिरत्र वर्जनार्थः। (अद्य) अस्मिन् दिने (सुते) विद्यायज्ञे प्रवृत्ते सति (अस्माकम्) नः (विश्वे) सर्वे (कामिनः) विद्याग्रहणेच्छवः (मरुतः) विद्यार्थिनः (सचा) संभूय (पिबन्तु) विद्यारसपानं कुर्वन्तु ॥ म्रियन्ते इति मरुतः। मृत्युरूपस्याचार्यस्य गर्भे स्थित्वा पूर्वसंस्कारान् परित्यज्य मृत्वा वा विद्यातः पुनर्जन्म प्राप्नुवन्ति, तस्माद् विद्यार्थिनो मरुत उच्यन्ते। आचार्यस्य मृत्युरूपत्वं च श्रुतिरेवमाह—‘आ॒चा॒र्यो मृ॒त्युः’ (अथ० ११।५।१४) इति। अन्यच्च—“आ॒चा॒र्य उपनय॑मानो ब्रह्मचा॒रिणं कृणुते॒ गर्भ॑म॒न्तः। तं रात्री॑स्ति॒स्र उ॒दरे॑ बिभर्ति॒ तं जा॒तं द्रष्टु॑मभि॒संय॑न्ति दे॒वाः” ॥ (अथ० ११।५।३) इति ॥ अथ द्वितीयः—कर्मफलभोगपक्षे। हे मरुतः मरणधर्माणो मनुष्याः। (वः) युष्माकं मध्ये (चरमं च न) अन्यतममपि (वसिष्ठः) अतिशयेन वस्ता वसिष्ठः सर्वव्यापकः परमेश्वरः। वस आच्छादने, तृजन्ताद् इष्ठनि ‘तुरिष्ठेमेयस्सु’, अ० ६।४।१५४ इति तृचो लोपः। (नहि परिमंसते) विना कर्मफलदानेन नैव परित्यजति, पूर्वस्मादारभ्य चरमपर्यन्तं सर्वेभ्य एव कर्मफलं प्रयच्छतीत्यर्थः। (अद्य) अस्मिन् दिने वर्तमानकाले इत्यर्थः (सुते) उत्पन्ने जगति (अस्माकम्) अस्मन्मध्ये (विश्वे) सर्वेऽपि (कामिनः) अभ्युदयाकांक्षिणः (मरुतः४) मरणधर्माणो मनुष्याः (सचा) संभूय (पिबन्तु) कर्मफलान्यास्वादयन्तु ॥९॥५ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥
यथा वसिष्ठः परमेश्वरो निरपवादं सर्वेभ्यो जीवात्मभ्यः कर्मानुसारं फलं प्रयच्छति तथैव वसिष्ठ आचार्यस्तथा सरलया शैल्या शिष्यानध्यापयेत् यथा निरपवादं सर्वेऽपि शिष्या विद्याग्रहणे क्षमन्ताम् ॥९॥
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