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देवता: अग्निः ऋषि: अग्निः पावकः छन्द: विष्टारपङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः काण्ड:

अ꣢ग्ने꣣ त꣢व꣣ श्र꣢वो꣣ व꣢यो꣣ म꣡हि꣢ भ्राजन्ते अ꣣र्च꣡यो꣢ विभावसो । बृ꣡ह꣢द्भानो꣣ श꣡व꣢सा꣣ वा꣡ज꣢मु꣣क्थ्य꣢ꣳ३ द꣡धा꣢सि दा꣣शु꣡षे꣢ कवे ॥१८१६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो । बृहद्भानो शवसा वाजमुक्थ्यꣳ३ दधासि दाशुषे कवे ॥१८१६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । त꣡व꣢꣯ । श्र꣡वः꣢꣯ । व꣡यः꣢꣯ । म꣡हि꣢꣯ । भ्रा꣣जन्ते । अर्च꣡यः꣢ । वि꣣भावसो । विभा । वसो । बृ꣡ह꣢꣯द्भानो । बृ꣡ह꣢꣯त् । भा꣣नो । श꣡व꣢꣯सा । वा꣡ज꣢꣯म् । उ꣣क्थ्य꣢म् । द꣡धा꣢꣯सि । दा꣣शु꣡षे꣢ । क꣣वे ॥१८१६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1816 | (कौथोम) 9 » 2 » 1 » 1 | (रानायाणीय) 20 » 5 » 2 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम मन्त्र में अग्नि नाम से परमात्मा के स्वरूप और उपकार का वर्णन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) जगन्नायक परमेश ! (तव) आपका (श्रवः) यश और (वयः) ऐश्वर्य (महि) महान् है। हे (विभावसो) दीप्तिधन ! आप ही की (अर्चयः) दीप्तियाँ (भ्राजन्ते) अग्नि, सूर्य, नक्षत्र आदियों में चमक रही हैं। हे (बृहद्भानो) महातेजस्वी ! हे (कवे) क्रान्तद्रष्टा ! आप (दाशुषे) आत्मसमर्पण करनेवाले को (शवसा) बल के साथ (उक्थ्यम्) प्रशंसनीय (वाजम्) आनन्द-रूप ऐश्वर्य (दधासि) देते हो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर स्वयं प्रकाशमान होता हुआ दूसरों को प्रकाशित करता है, स्वयं बलवान् होता हुआ दूसरों को बल देता है, स्वयं यशस्वी होता हुआ दूसरों को यशस्वी करता है, स्वयं आनन्दवान् होता हुआ दूसरों को आनन्दित करता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्राग्निनाम्ना परमात्मनः स्वरूपमुपकारं च वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) जगन्नेतः परमेश ! (तव) त्वदीयम् (श्रवः) यशः (वयः) ऐश्वर्यञ्च (महि) महत् वर्तते। हे (विभावसो) तेजोधन ! तव (अर्चयः) दीप्तयः (भ्राजन्ते) वह्निसूर्यनक्षत्रादिषु दीप्यन्ते। हे (बृहद्भानो) महातेजस्क ! हे (कवे) क्रान्तदर्शिन् ! त्वम् (दाशुषे) आत्मसमर्पकाय (शवसा) बलेन सह (उक्थ्यम्) प्रशंसनीयम् (वाजम्) आनन्दरूपमैश्वर्यम् (दधासि) प्रयच्छसि ॥१॥२

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरः स्वयं प्रकाशमानः सन्नन्यान् प्रकाशयति, स्वयं बलवान् सन्नन्येभ्यो बलानि प्रयच्छति, स्वयं यशस्वी सन्नन्यान् यशस्विनः करोति, स्वयमानन्दवान् सन्नन्यानानन्दिनः करोति ॥१॥



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