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दो꣣षो꣡ आगा꣢꣯द्बृ꣣ह꣡द्गा꣢य꣣ द्यु꣡म꣢द्गामन्नाथर्वण । स्तु꣣हि꣢ दे꣣व꣡ꣳ स꣢वि꣣ता꣡र꣢म् ॥१७७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)दोषो आगाद्बृहद्गाय द्युमद्गामन्नाथर्वण । स्तुहि देवꣳ सवितारम् ॥१७७॥
दो꣣षा꣢ । उ꣣ । आ꣣ । अ꣣गात् । बृह꣢त् । गा꣣य । द्यु꣡म꣢꣯द्गामन् । द्यु꣡म꣢꣯त् । गा꣣मन् । आथर्वण । स्तुहि꣢ । दे꣣वम् । स꣣वि꣡ता꣢रम् ॥१७७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में मनुष्य को परमात्मा और राजा की स्तुति के लिए प्रेरणा की गयी है।
हे (द्युमद्गामन्) विद्यादिसद्गुणों से प्रकाशित आचरणवाले (आथर्वण) अचंचल वृत्तिवाले अतिशय स्थितप्रज्ञ विद्वन् ! देख, (दोषा उ) अज्ञान, मोह, दुर्व्यसन, दुराचार आदि की अँधियारी रात (अगात्) आ गयी है, इसलिए तू (बृहत्) बहुत अधिक (गाय) गान कर अर्थात् सदुपदेश, शुभ शिक्षा आदि के द्वारा धर्मवाणी को फैला, (देवम्) प्रकाशमय और प्रकाशक (सवितारम्) सद्विद्या आदि के प्रेरक इन्द्र प्रभु की (अर्च) अर्चना कर, अथवा (सवितारम्) सद्विद्या आदि के प्रेरक इन्द्र राजा को (अर्च) उद्बोधन दे । इस ऋचा का देवता इन्द्र होने से ‘सविता’ यहाँ इन्द्र का ही विशेषण जानना चाहिए ॥३॥
जैसे गगन में उदित हुआ सूर्य अपनी किरणों से घनघोर अन्धकारवाली रात्रि को हटाकर सर्वत्र प्रकाश फैला देता है, वैसे ही मनुष्यों के हृदयों में प्रकट हुआ परमात्मा और राष्ट्र में राजा के पद पर अभिषिक्त हुआ वीर मनुष्य सर्वत्र व्याप्त अधर्म, अज्ञान, दुश्चरित्रता, दुराचार आदि की काली रात को विदीर्ण कर धर्म, विद्या, सच्चरित्रता आदि के उज्ज्वल प्रकाश को चारों ओर फैला देता है। अतः विद्वानों को चाहिए कि वे उस परमात्मा और राजा की उनके गुणों के वर्णन द्वारा पुनः पुनः स्तुति करें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ मनुष्यः परमात्मानं राजानं च स्तोतुं प्रेर्यते।
हे (द्युमद्गामन्२) द्युमान् दीप्तिमान् विद्यादिसद्गुणप्रकाशयुक्तः३ गामा गमनम् आचरणं यस्य तथाविध ! द्युमान् द्योतनवान्। निरु० ६।१९। गामा इत्यत्र गाङ् गतौ धातोः सर्वधातुभ्यो मनिन् उ० ४।१४६ इति मनिन्। (आथर्वण) अचञ्चलवृत्ते अतिशयस्थितप्रज्ञ विद्वन् ! अथर्वाणोऽथर्वणवन्तः। थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः। निरु० ११।१९। अथर्वणोऽपत्यम् आथर्वणः। अपत्यार्थे अण् प्रत्ययः४। पश्य, (दोषा५ उ) रात्रिः, अज्ञानमोहदुर्व्यसनदुराचारादीनां तमिस्रा। दोषा इति रात्रिनाम। निघं० २।७। (आ अगात्) आगताऽस्ति। अतस्त्वम् (बृहत्६) प्रचुरम् (गाय) गानं कुरु, सदुपदेशसच्छिक्षादिद्वारेण धर्मवाणीं प्रसारय। (देवम्) प्रकाशमयं प्रकाशकं च (सवितारम्) सद्विद्यादिप्रेरकम् इन्द्रं परमात्मानं राजानं वा (स्तुहि) अर्च, उद्बोधय वा। अत्र इन्द्रदेवताकत्वाद् ऋचः सविता इन्द्र एव ज्ञेयः ॥३॥
यथा गगने प्रकटितः सूर्यः स्वरश्मिभिर्निविडान्धकारपूर्णां निशां निवार्य सर्वत्र प्रकाशं विकिरति, तथैव जनानां हृदयेषु प्रकटितः परमात्मा, राष्ट्रे राजपदेऽभिषिक्तो वीरो मनुष्यश्च सर्वतो व्याप्तामधर्माज्ञानदुश्चारित्र्यकदाचारादेः कृष्णां तमिस्रां विदार्य धर्मविद्यासच्चारित्र्यादेरुज्ज्वलं प्रकाशं प्रसारयति। अतो विद्वद्भिः स परमेश्वरो राजा च गुणवर्णनेन मुहुर्मुहुः स्तोतव्यः ॥३॥
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