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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: अवत्सारः काश्यपः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣡स्य꣢ व्र꣣ता꣢नि꣣ ना꣢꣫धृषे꣣ प꣡व꣢मानस्य दू꣣꣬ढ्या꣢꣯ । रु꣣ज꣡ यस्त्वा꣢꣯ पृत꣣न्य꣡ति꣢ ॥१७१६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अस्य व्रतानि नाधृषे पवमानस्य दूढ्या । रुज यस्त्वा पृतन्यति ॥१७१६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡स्य꣢꣯ । व्र꣣ता꣡नि꣢ । न । आ꣣धृ꣡षे꣢ । आ꣣ । धृ꣡षे꣢꣯ । प꣡व꣢꣯मानस्य । दू꣣ढ्या꣢ । रु꣣ज꣢ । यः । त्वा꣣ । पृतन्य꣡ति꣢ ॥१७१६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1716 | (कौथोम) 8 » 3 » 2 » 3 | (रानायाणीय) 19 » 1 » 2 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन देते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अस्य) इस (पवमानस्य) गतिमान् पुरुषार्थी जीव के (व्रतानि) व्रत वा कर्म (दूढ्या) दुर्बुद्धि शत्रु के द्वारा (आधृषे न) दबाये नहीं जा सकते। हे मेरे अन्तरात्मन् ! (यः) जो भी आन्तरिक वा बाहरी शत्रु (त्वा) तुझ पर (पृतन्यति) सेना से धावा करता है, उसे (रुज) नष्ट-भ्रष्ट कर दे ॥३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य के अन्तरात्मा को योग्य है कि वह प्रबोध और उद्बोधन प्राप्त करके अपनी शक्ति से सब अन्दर के और बाहर के शत्रुओं को परास्त करके देवासुरसङ्ग्राम में विजयी हो ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ स्वकीयमन्तरात्मानमुद्बोधयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

(अस्य) एतस्य (पवमानस्य) पुरुषार्थिनो जीवस्य। [पवते गतिकर्मा। निघं० २।१४।] (व्रतानि) संकल्पाः कर्माणि वा (दूढ्या) दुर्धिया शत्रुणा (आधृषे न) आधर्षणाय न भवन्ति। हे मदीय अन्तरात्मन् ! (यः) योऽपि आन्तरो बाह्यो वा रिपुः (त्वा) त्वाम् (पृतन्यति) सेनया अभियाति, तम् (रुज) भङ्ग्धि ॥३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यस्यान्तरात्मा प्रबोधनमुद्बोधनं च प्राप्य स्वशक्त्या सर्वान् आन्तरान् बाह्यांश्च रिपून् पराभूय देवासुरसंग्रामे विजेतुमर्हति ॥३॥



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