Notice: Undefined index: lan in /home/j2b3a4c/public_html/pages/samveda.php on line 166
इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ अ꣡प꣢स꣣स्प꣢꣫र्युप꣣ प्र꣡ य꣢न्ति धी꣣त꣡यः꣢ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ प꣣थ्या꣢३ अ꣡नु꣢ ॥१६९४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्राग्नी अपसस्पर्युप प्र यन्ति धीतयः । ऋतस्य पथ्या३ अनु ॥१६९४॥
इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । अ꣡प꣢꣯सः । प꣡रि꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । प्र । य꣣न्ति । धीत꣡यः । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । प꣣थ्याः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ ॥१६९४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीय ऋचा की व्याख्या उत्तरार्चिक में १५७७ क्रमाङ्क पर जीवात्मा और परमात्मा के विषय में की जा चुकी है। यहाँ आत्मा और मन का विषय वर्णित है।
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (धीतयः) ज्ञान (अपसः परि) कर्मों में ही (उप प्रयन्ति) परिसमाप्त हुआ करते हैं। अतः तुम दोनों(ऋतस्य) सत्य कर्म के (पथ्याः) मार्गों का (अनु) अनुसरण करो ॥२॥
कर्महीन अकेले ज्ञान शोभा नहीं पाते ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
द्वितीया ऋगुत्तरार्चिके १५७७ क्रमाङ्के जीवात्मपरमात्मविषये व्याख्यातपूर्वा। अत्रात्ममनसोर्विषय उच्यते।
हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! (धीतयः) ज्ञानानि (अपसः परि)कर्मसु एव (उप प्रयन्ति) परिसमाप्यन्ते। अतः युवाम्(ऋतस्य) सत्यकर्मणः (पथ्याः) मार्गान् (अनु) अनुसरतम् ॥२॥२
कर्महीनानि केवलानि ज्ञानानि न शोभन्ते ॥२॥
Notice: Undefined index: lan in /home/j2b3a4c/public_html/pages/samveda.php on line 609
