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म꣣ही꣢ मि꣣त्र꣡स्य꣢ साधथ꣣स्त꣡र꣢न्ती꣣ पि꣡प्र꣢ती ऋ꣣त꣢म् । प꣡रि꣢ य꣣ज्ञं꣡ नि षे꣢꣯दथुः ॥१५९८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)मही मित्रस्य साधथस्तरन्ती पिप्रती ऋतम् । परि यज्ञं नि षेदथुः ॥१५९८॥
म꣣ही꣡इति꣢ । मि꣣त्र꣡स्य꣢ । मि꣣ । त्र꣡स्य꣢꣯ । सा꣣धथः । त꣡र꣢꣯न्तीइ꣡ति꣢ । पि꣡प्र꣢꣯ती꣣इ꣡ति꣢ । ऋ꣣त꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । य꣣ज्ञ꣢म् । नि । से꣣दथुः ॥१५९८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अब दोनों के आश्रय से योगसिद्धि होने का वर्णन करते हैं।
हे आत्मा और बुद्धि ! (मही) महान् तुम दोनों (मित्रस्य) मित्र उपासक की (साधथः) योगसाधना को पूर्ण करते हो। (तरन्ती) योग के विघ्नों को पार करते हुए, (ऋतम्) सत्य को (पिप्रती) पूर्ण करते हुए तुम दोनों (यज्ञम्) योगी के योग-यज्ञ को (परि निषेदथुः) चारों ओर से व्याप्त करते हो ॥३॥
जीवात्मा के बिना बुद्धि और बुद्धि के बिना जीवात्मा योग सिद्ध नहीं कर सकते। दोनों आपस में मिलकर ही योगयज्ञ की पूर्ति करते हैं ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथोभयोराश्रयेण योगसिद्धिमाह।
हे आत्मबुद्धी ! (मही) महत्यौ युवाम् (मित्रस्य) सुहृद्भूतस्य उपासकस्य (साधथः) योगसाधनां पूरयतः। (तरन्ती) योगविघ्नान् पारयन्त्यौ (ऋतम्) सत्यम् (पिप्रती) प्रपूरयन्त्यौ युवाम् (यज्ञम्) योगिनो योगयज्ञम् (परि निषेदथुः) परिनिषीदथः, परिव्याप्नुथः ॥३॥२
जीवात्मानं विना बुद्धिर्बुद्धिं च विना जीवात्मा योगं साद्धुमकिञ्चित्करौ खलु। उभौ परस्परं मिलित्वैव योगयज्ञं पूर्तिं नयतः ॥३॥
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