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उ꣡प꣢ नः सू꣣न꣢वो꣣ गि꣡रः꣢ शृ꣣ण्व꣢न्त्व꣣मृ꣡त꣢स्य꣣ ये꣢ । सु꣣मृडीका꣡ भ꣢वन्तु नः ॥१५९५॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उप नः सूनवो गिरः शृण्वन्त्वमृतस्य ये । सुमृडीका भवन्तु नः ॥१५९५॥
उ꣡प꣢ । नः । सून꣡वः꣢ । गि꣡रः꣢ । शृ꣣ण्व꣡न्तु꣢ । अ꣣मृ꣡त꣢स्य । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯स्य । ये । सु꣣मृडीकाः꣢ । सु꣣ । मृडीकाः꣢ । भ꣣वन्तु । नः ॥१५९५॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले एक ऋचावाले सूक्त में सन्तान कैसी हों, यह विषय है।
(यः) जो (नः) हमारे (सूनवः) सन्तान हों, वे (अमृतस्य) अविनाशी परमेश्वर वा नित्य वेद की (गिरः) वाणियों को (उप शृण्वन्तु) अर्थज्ञानपूर्वक गुरुमुख से सुनें। इस प्रकार विद्वान् होकर (नः) हमारे लिए (सुमृडीकाः) अति सुखकारी (भवन्तु) होवें ॥१॥
आचार्य के मुख से सब वेद आदि शास्त्रों को पढ़कर सब व्यावहारिक विद्याओं में जो पारंगत हो जाते हैं, वे ही स्वयं को और समाज को सुखी कर सकते हैं ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अस्मिन्नेकर्चे सूक्ते सन्तानाः कीदृशा भवेयुरिति विषयमाह।
ये (नः) अस्माकम् (सूनवः) सन्तानाः स्युः, ते (अमृतस्य) नाशरहितस्य परमेश्वरस्य नित्यस्य वेदस्य वा (गिरः) वाचः (उप शृण्वन्तु) अर्थबोधपूर्वकं गुरुमुखादाकर्णयन्तु। एवं विद्वांसो भूत्वा (नः) अस्मभ्यम् (सुमृडीकाः) सुष्ठु सुखकराः (भवन्तु) जायन्ताम् ॥१॥२
आचार्यमुखात् सर्वाणि वेदादिशास्त्राण्यधीत्य सर्वासु व्यावहारिकविद्यासु ब्रह्मविद्यायां च ये पारंगता भवन्ति त एव स्वात्मानं समाजं च सुखयितुं शक्नुवन्ति ॥१॥
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