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अ꣣यं꣡ त꣢ इन्द्र꣣ सो꣢मो꣣ नि꣡पू꣢तो꣣ अ꣡धि꣢ ब꣣र्हि꣡षि꣢ । ए꣡ही꣢म꣣स्य꣢꣫ द्रवा꣣ पि꣡ब꣢ ॥१५९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अयं त इन्द्र सोमो निपूतो अधि बर्हिषि । एहीमस्य द्रवा पिब ॥१५९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣣य꣢म् । ते꣣ । इन्द्र । सो꣡मः꣢꣯ । नि꣡पू꣢꣯तः । नि । पू꣣तः । अ꣡धि꣢꣯ । ब꣣र्हि꣡षि꣢ । आ । इ꣣हि । ईम् । अस्य꣢ । द्र꣡व꣢꣯ । पि꣡ब꣢꣯ ॥१५९॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 159 | (कौथोम) 2 » 2 » 2 » 5 | (रानायाणीय) 2 » 5 » 5


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में इन्द्र को रसपान के लिए बुलाया जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (अयम्) यह (सोमः) श्रद्धारस (तुभ्यम्) तेरे लिए (बर्हिषि अधि) हृदयरूप अन्तरिक्ष में (निपूतः) पूर्णतः पवित्र कर लिया गया है। (एहि) आ, (ईम्) इसके प्रति (द्रव) दौड़, (अस्य) इसके भाग को (पिब) पान कर ॥५॥

भावार्थभाषाः -

जैसे अन्तरिक्षस्थ मेघ-जल पवित्र होता है, वैसे ही हृदयान्तरिक्ष में स्थित श्रद्धा-रस को तेरे भक्त मैंने पूर्णतः पवित्र कर लिया है। उस मेरे पवित्र श्रद्धा-रस का पान करने के लिए तू शीघ्र ही आ और उत्कंठित होकर पी, जिससे मैं कृतार्थ हो जाउँ। यहाँ परमात्मा के सर्वव्यापक और निरवयव होने के कारण उसमें शीघ्र आने, पीने आदि का व्यवहार नहीं घट सकता, इसलिए आगमन का अर्थ प्रकट होना तथा पीने का अर्थ स्वीकार करना लक्षणावृत्ति से समझना चाहिए ॥५॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथेन्द्रो रसं पातुमाकार्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् परमात्मन् ! (अयम्) एष पुरतो दृश्यमानः (सोमः) श्रद्धारसः (ते) तुभ्यम् (बर्हिषि अधि) हृदयान्तरिक्षे। बर्हिरित्यन्तरिक्षनाम। निघं० १।३। (निपूतः) नितरां पवित्रीकृतोऽस्ति। (एहि) आगच्छ, (ईम्) एनं प्रति। ईम् एनम्। निरु० १०।४५। (द्रव) त्वरस्व, (अस्य) एतस्य भागम्। षष्ठी भागद्योतनार्था। (पिब) आस्वादय ॥५॥

भावार्थभाषाः -

यथाऽन्तरिक्षस्थं मेघजलं पवित्रं भवति तथैव हृदयान्तरिक्षस्थो श्रद्धारसस्तव भक्तेन मया नितरां पवित्रीकृतोऽस्ति। तं पवित्रं मम श्रद्धारसं पातुं त्वं सत्वरमागच्छ, सोत्कण्ठं पिब च, येनाहं कृतार्थो भवेयम्। परमात्मनः सर्वव्यापकत्वान्निरवयवत्वाच्च तत्र सत्वरागमनपानादिव्यवहारो न घटत इत्यागमनस्य प्रकटीभावे पानस्य च स्वीकारे लक्षणा बोध्या ॥५॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।१७।११, साम० ७२५, अथ० २०।५।५।


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