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देवता: अग्निः ऋषि: केतुराग्नेयः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

अ꣢ग्ने꣣ न꣡क्ष꣢त्रम꣣ज꣢र꣣मा꣡ सूर्य꣢꣯ꣳ रोहयो दि꣣वि꣢ । द꣢ध꣣ज्ज्यो꣢ति꣣र्ज꣡ने꣢भ्यः ॥१५३०॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

अग्ने नक्षत्रमजरमा सूर्यꣳ रोहयो दिवि । दधज्ज्योतिर्जनेभ्यः ॥१५३०॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ꣡ग्ने꣢꣯ । न꣡क्ष꣢꣯त्रम् । अ꣣ज꣡र꣢म् । अ꣣ । ज꣡र꣢꣯म् । आ । सू꣡र्य꣢꣯म् । रो꣣हयः । दि꣣वि꣢ । द꣡ध꣢꣯त् । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । ज꣡ने꣢꣯भ्यः ॥१५३०॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1530 | (कौथोम) 7 » 1 » 15 » 4 | (रानायाणीय) 14 » 4 » 2 » 4


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आगे फिर वही विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (अग्ने) ज्योतिर्मय, प्रकाशक, जगन्नायक परमात्मन् ! (जनेभ्यः) उत्पन्न प्राणियों के लिए (ज्योतिः) प्रकाश (दधत्) प्रदान करते हुए आपने (नक्षत्रम्) गतिमय, अपनी धुरी पर घूमनेवाले, (अजरम्) सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब तक जीर्ण न हुए (सूर्यम्) सूर्य को (दिवि) आकाश में (आरोहयः) चढ़ाया हुआ है ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। हे (अग्ने) राष्ट्रनायक राजन् ! (जनेभ्यः) प्रजाओं के लिए (ज्योतिः) विद्या का प्रकाश और बिजली का प्रकाश (दधत्) प्रदान करते हुए आपने (नक्षत्रम्) गतिमान्, (अजरम्) जीर्णता-रहित (सूर्यम्) विद्या और धर्म के सूर्य को (दिवि) राष्ट्र-गगन में (आरोहयः) चढ़ा दिया है ॥४॥

भावार्थभाषाः -

जैसे परमेश्वर आकाश में वस्तुतः ही सूर्य को उत्पन्न करता है, वैसे ही जो राजा राष्ट्र में परा विद्या, अपरा विद्या और धर्म का प्रकाश करता है वह भी मानो सूर्य को उत्पन्न करता हैं ॥४॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनस्तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमात्मपरः। हे (अग्ने) ज्योतिर्मय प्रकाशक जगन्नेतः परमात्मन् ! (जनेभ्यः) जातेभ्यः प्राणिभ्यः (ज्योतिः) प्रकाशम् (दधत्) प्रयच्छन् सन् त्वम् (नक्षत्रम्) गतिमयम्, स्वधुरि परिभ्रमन्तम्। [नक्षत्राणि नक्षतेर्गतिकर्मणः। निरु० ३।२०।] (अजरम्) आसृष्टेरद्यावधि अजीर्णम् (सूर्यम्) आदित्यम् (दिवि) आकाशे (आ रोहयः) आरोहितवानसि ॥ द्वितीयः—नृपतिपरः। हे (अग्ने) राष्ट्रनायक राजन् (जनेभ्यः) प्रजाभ्यः (ज्योतिः) विद्याप्रकाशं विद्युत्प्रकाशं च (दधत्) जनयन् त्वम् (नक्षत्रम्) गतिमन्तम्, (अजरम्) जीर्णतारहतिम् (सूर्यम्) विद्याया धर्मस्य च आदित्यम् (दिवि) राष्ट्रगगने (आरोहयः) आरोहितवानसि ॥४॥

भावार्थभाषाः -

यथा परमेश्वरो गगने वस्तुत एव सूर्यं जनयति तथैव यो राजा राष्ट्रे पराविद्याया अपराविद्याया धर्मस्य च प्रकाशं करोति सोऽपि सूर्यमिव जनयतीत्युच्यते ॥४॥



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