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वी꣣ति꣡हो꣢त्रं त्वा कवे द्यु꣣म꣢न्त꣣ꣳ स꣡मि꣢धीमहि । अ꣡ग्ने꣢ बृ꣣ह꣡न्त꣢मध्व꣣रे꣢ ॥१५२३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)वीतिहोत्रं त्वा कवे द्युमन्तꣳ समिधीमहि । अग्ने बृहन्तमध्वरे ॥१५२३॥
वीति꣡हो꣢त्रम् । वी꣣ति꣢ । हो꣣त्रम् । त्वा । कवे । द्युम꣡न्त꣢म् । सम् । इ꣣धीमहि । अ꣡ग्ने꣢꣯ । बृ꣣ह꣡न्त꣢म् । अ꣣ध्वरे꣢ ॥१५२३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे फिर उन्हीं के विषय में कहा गया है।
हे (कवे) क्रान्तदर्शी, (अग्ने) सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर वा विद्वान् आचार्य ! (वीतिहोत्रम्) जगत् के उत्पादनरूप यज्ञ को वा विद्यायज्ञ को करनेवाले, (द्युमन्तम्) तेजस्वी, (बृहन्तम्) गुणों में महान् (त्वा) आपको, हम (अध्वरे) उपासना-यज्ञ, जीवन-यज्ञ वा विद्याध्ययन-यज्ञ में (समिधीमहि) प्रदीप्त करते हैं ॥३॥
जो परमात्मा और आचार्य का सेवन करते हैं, वे विद्वान्, सदाचारी, गुणवान् और कर्मशूर होते हुए अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त करते हैं ॥३॥ इस खण्ड में अग्निहोत्र, परमात्मा, राजा, योगिराज और आचार्य के विषयों का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ चौदहवें अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि तद्विषये प्रोच्यते।
हे (कवे) क्रान्तदर्शिन् (अग्ने) सर्ववित् सर्वान्तर्यामिन् जगदीश्वर विद्वन् आचार्य वा ! (वीतिहोत्रम्) व्याप्तजगदुत्पत्तियज्ञं व्याप्तविद्यायज्ञं वा, (द्युमन्तम्) तेजस्विनम्, (बृहन्तम्) गुणैर्महान्तम् (त्वा) त्वाम्, वयम् (अध्वरे) उपासनायज्ञे जीवनयज्ञे विद्याध्ययनयज्ञे वा (समिधीमहि) प्रदीपयामः ॥३॥२
ये परमात्मानमाचार्यं च सेवन्ते ते विद्वांसः सदाचारा गुणवन्तः कर्मशूराश्च सन्तोऽभ्युदयं निःश्रेयसं च लभन्ते ॥३॥ अस्मिन् खण्डेऽग्निहोत्रपरमात्मनृपतियोगिराडाचार्यविषयवर्णनादे- तत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्ति।
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