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गा꣡य꣢न्ति त्वा गाय꣣त्रि꣡णोऽर्च꣢꣯न्त्य꣣र्क꣢म꣣र्कि꣡णः꣢ । ब्र꣣ह्मा꣡ण꣢स्त्वा शतक्रत꣣ उ꣢द्व꣣ꣳश꣡मि꣢व येमिरे ॥१३४४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः । ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वꣳशमिव येमिरे ॥१३४४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

गा꣡य꣢꣯न्ति । त्वा꣣ । गायत्रि꣡णः꣢ । अ꣡र्च꣢꣯न्ति । अ꣣र्क꣢म् । अ꣣र्कि꣡णः꣢ । ब्र꣣ह्मा꣡णः꣢ । त्वा꣣ । शतक्रतो । शत । क्रतो । उ꣢त् । व꣣ꣳश꣢म् । इ꣣व । येमिरे ॥१३४४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1344 | (कौथोम) 5 » 2 » 23 » 1 | (रानायाणीय) 10 » 12 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३४२ क्रमाङ्क पर परमेश्वर की अर्चना के विषय में हो चुकी है। यहाँ भी उसी विषय का वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्मों वा प्रज्ञाओंवाले जगदीश्वर ! (त्वा) गाये जाने योग्य आपकी (गायत्रिणः) जिन्होंने वेदों के गायत्री आदि प्रशस्त छन्दों का अध्ययन किया हुआ है, ऐसे धार्मिक ईश्वरोपासक लोग (गायन्ति) सामवेद आदि के गान द्वारा प्रशंसा करते हैं। (अर्किणः) वेदमन्त्र जिनके ज्ञान के साधन हैं, ऐसे लोग (अर्कम्) सब जनों के पूजनीय आपकी (अर्चन्ति) नित्य पूजा करते हैं। (ब्रह्माणः) वेदार्थों को जानकर तदनुसार कर्म करनेवाले विद्वान् लोग (त्वा) जगत् के रचयिता आपको (उद्येमिरे) अपने प्रति उद्यमवान् करते हैं, (वंशम् इव) जैसे उत्कृष्ट गुणों और शिक्षाओं से लोग अपने कुल को (उद् येमिरे) उद्यमी बनाते हैं ॥१॥३ यहाँ उपमालङ्कार है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

सब मनुष्यों को चाहिए कि वे परमेश्वर का ही गान और पूजन करें, क्योंकि उसके तुल्य या उससे अधिक अन्य कोई नहीं हैं ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३४२ क्रमाङ्के परमेश्वरार्चनविषये व्याख्याता। अत्रापि स एव विषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (शतक्रतो) शतं बहूनि कर्माणि प्रज्ञानानि वा यस्य तथाविध इन्द्र जगदीश्वर ! (त्वा) गेयं त्वाम् (गायत्रिणः) गायत्राणि प्रशस्तानि छन्दांस्यधीतानि विद्यन्ते येषां ते धार्मिका ईश्वरोपासकाः। [अत्र प्रशंसायामिनिः।] (गायन्ति) सामवेदादिगानेन प्रशंसन्ति। (अर्किणः) अर्का मन्त्रा ज्ञानसाधना येषां ते (अर्कम्) अर्च्यते पूज्यते सर्वैर्जनैर्यस्तं त्वाम् (अर्चन्ति) नित्यं पूजयन्ति। (ब्रह्माणः) वेदार्थान् विदित्वा क्रियावन्तो विद्वांसः (त्वा) त्वां जगत्स्रष्टारम् (उद्येमिरे) उद्यच्छन्ति, (वंशम् इव) यथोत्कृष्टैर्गुणैः शिक्षणैश्च स्वकीयं वंशम् (उद्येमिरे) उद्यमवन्तं कुर्वन्ति तथा ॥१॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥

भावार्थभाषाः -

सर्वैर्जनैः परमेश्वरस्यैव गानमर्चनं च कर्तव्यम्, तत्सदृशस्य तदधिकस्य वाऽन्यस्य कस्यचिद् अविद्यमानत्वात् ॥१॥



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