Notice: Undefined index: lan in /home/j2b3a4c/public_html/pages/samveda.php on line 166
य꣢꣫ एक꣣ इ꣢द्वि꣣द꣡य꣢ते꣣ व꣢सु꣣ म꣡र्ता꣢य दा꣣शु꣡षे꣢ । ई꣡शा꣢नो꣣ अ꣡प्र꣢तिष्कुत꣣ इ꣡न्द्रो꣢ अ꣣ङ्ग꣢ ॥१३४१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)य एक इद्विदयते वसु मर्ताय दाशुषे । ईशानो अप्रतिष्कुत इन्द्रो अङ्ग ॥१३४१॥
यः꣢ । ए꣡कः꣢꣯ । इत् । वि꣣द꣢य꣢ते । वि꣣ । द꣡य꣢ते । व꣡सु꣢꣯ । म꣡र्ता꣢꣯य । दा꣣शु꣡षे꣢ । ई꣡शा꣢꣯नः । अ꣡प्र꣢꣯तिष्कुतः । अ । प्र꣣तिष्कुतः । इ꣡न्द्रः꣢ । अ꣣ङ्ग꣢ ॥१३४१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा की व्याख्या पूर्वार्चिक में ३८९ क्रमाङ्क पर परमेश्वर के विषय में की गयी थी। यहाँ परमात्मा और राजा का विषय वर्णित करते हैं।
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। (यः एक इत्) जो एक ही है और (दाशुषे) आत्मसमर्पण करनेवाले (मर्ताय) मनुष्य को (वसु) श्रेष्ठ गुण-कर्म-स्वभाव रूप ऐश्वर्य (विदयते) विशेषरूप से देता है। (अङ्ग) हे भाई ! वह (ईशानः) सबका शासक (अप्रतिष्कुतः) किसी से प्रतीकार न किया गया (इन्द्रः) इन्द्र नामक परमेश्वर है ॥ द्वितीय—राजा के पक्ष में। (यः एकः इत्) जो अकेला ही, सब शत्रुओं को (विदयते) विनष्ट कर सके और (दाशुषे) कर देनेवाले (मर्ताय) प्रजाजन को (वसु) ऐश्वर्य (विदयते) प्रदान करे और जो (ईशानः) शासन में समर्थ तथा (अप्रतिष्कुतः) न लड़खड़ानेवाला हो, अङ्ग हे भाई ! वही (इन्द्रः) राजा बनाया जाना चाहिए ॥१॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१॥
पाषाण आदि की मूर्ति परमेश्वर नहीं है, प्रत्युत जो एक, निराकार, स्तोताओं को ऐश्वर्य देनेवाला सर्वाधीश्वर है, वही परमेश्वर नाम से कहा जाता है। इसी प्रकार प्रजाओं द्वारा वही नर राजा रूप में चुना चाहिए जो अकेला भी अनेकों शत्रुओं को हरा सके और अपनी प्रजाओं का रञ्जन करे ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ३८९ क्रमाङ्के परमेश्वरविषये व्याख्याता। अत्र परमात्मनृपत्योर्विषयो वर्ण्यते।
प्रथमः—परमात्मपरः। (यः एकः इत्) यः एक एव वर्तते, किञ्च (दाशुषे) आत्मसमर्पकाय (मर्ताय) मनुष्याय (वसु) सद्गुणकर्मस्वभावरूपम् ऐश्वर्यम् (विदयते) विशेषेण ददाति, (अङ्ग) हे भद्र ! सः (ईशानः) सर्वेषां शासकः (अप्रतिष्कुतः) केनापि अप्रतिकृतः, (इन्द्रः) इन्द्रनामकः परमेश्वरोऽस्ति ॥ द्वितीयः—नृपतिपरः। (यः एकः इत्) यः एकः एव, सर्वान् शत्रून् (विदयते) विनाशयति। [दय दानगतिरक्षणहिंसादानेषु, भ्वादिः।], अपि च (दाशुषे) करप्रदात्रे (मर्ताय) प्रजाजनाय (वसु) ऐश्वर्यम् (विदयते) प्रयच्छति, यश्च (ईशानः) शासनक्षमः (अप्रतिष्कुतः) अप्रतिस्खलितश्च अस्ति, हे (अङ्ग) भद्र ! स एव (इन्द्रः) राजा कर्तव्यः ॥१॥२ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१॥
पाषाणादिमूर्तिः खलु परमेश्वरो नास्ति, प्रत्युत य एको निराकारः स्तोतृभ्य ऐश्वर्यप्रदाता सर्वाधीश्वरोऽस्ति स एव परमेश्वरसंज्ञया व्यपदिश्यते। तथैव प्रजाभिः स एव नरः नृपत्वेन वरणीयो य एकोऽपि बहून् रिपून् पराजयेत् स्वप्रजा रञ्जयेच्च ॥१॥
Notice: Undefined index: lan in /home/j2b3a4c/public_html/pages/samveda.php on line 609
