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अ꣣भि꣡ हि स꣢꣯त्य सोमपा उ꣣भे꣢ ब꣣भू꣢थ꣣ रो꣡द꣢सी । इ꣡न्द्रासि꣢꣯ सुन्व꣣तो꣢ वृ꣣धः꣡ पति꣢꣯र्दि꣣वः꣡ ॥१२४८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अभि हि सत्य सोमपा उभे बभूथ रोदसी । इन्द्रासि सुन्वतो वृधः पतिर्दिवः ॥१२४८॥
अ꣣भि꣢ । हि । स꣣त्य । सोमपाः । सोम । पाः । उभे꣡इति꣢ । ब꣣भू꣡थ꣢ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣡सि꣢꣯ । सु꣣न्वतः꣢ । वृ꣣धः꣢ । प꣡तिः꣢꣯ । दि꣣वः꣢ ॥१२४८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा का विषय है।
हे (सत्य) सत्य गुण-कर्म-स्वभाववाले, (सोमपाः) शान्ति के रक्षक जगदीश्वर ! आपने (हि) निश्चय ही (उभे रोदसी) द्यावापृथिवी दोनों को (अभिबभूथ) तिरस्कृत किया हुआ है। हे (इन्द्र) सर्वान्तर्यामिन् ! आप (सुन्वतः) शान्ति-स्थापना का यज्ञ करनेवाले को (वृधः) बढ़ानेवाले और (दिवः) तेजस्वी जन के (पतिः) रक्षक (असि) हो ॥२॥
संसार में जो शान्ति की स्थापना के लिए यत्न करते हैं, उन्हीं का परमेश्वर सखा होता है ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि परमात्मविषयमाह।
हे (सत्य) सत्यगुणकर्मस्वभाव, (सोमपाः) शान्तिरक्षक जगदीश्वर ! त्वम् (हि) निश्चयेन (उभे रोदसी) उभे द्यावापृथिव्यौ (अभि बभूथ) तिरस्कृतवानसि। [‘बभूविथ इति प्राप्ते’ बभूथाततन्थजगृभ्मववर्थेति निगमे। अ० ७।२।६४,इतीट्प्रतिषेधो निपात्यते।] हे (इन्द्र) सर्वान्तर्यामिन् ! त्वम् (सुन्वतः) शान्तिस्थापनायज्ञं कुर्वतः (वृधः) वर्धयिता, (दिवः पतिः) तेजस्विनो जनस्य च रक्षकः (असि) विद्यसे ॥२॥
जगति ये शान्तिस्थापनाय यतन्ते तेषामेव परमेश्वरः सखा भवति ॥२॥
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